आज के सन्दर्भ में महाड आन्दोलन का महत्त्व

(समाज वीकली)

अम्बेडकरी आन्दोलन के इतिहास में महाड एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान है जहा बाबा साहेब आंबेडकर ने लोगो को संघर्ष का रास्ता दिखाया और ये भी साबित किया के किसी भी आन्दोलन की जीत में वैचारिक स्पष्टता बहुत आवश्यक है. इस वर्ष अगस्त में जब मै महाड गया था तो मैंने इन ऐतिहासिक जगहों को देखने की कोशिश की. यहाँ के उस चावदार तालाब में जहा बाबा साहेब ने पानी पीकर दलितों वंचितों को उनके पीने के पानी के मूल अधिकार को दिल्लाया था, वहा पहुंचकर बेहद प्रसन्नता भी हुई और दुःख भी हुआ. इस ऐतिहासिक स्थल को जैसे रखा जाना चाहिए था वैसा नहीं हुआ और यहाँ की नगरपालिका ने इसे मात्र एक पार्क में तब्दील कर दिया है. पार्क से जुडा एक आंबेडकर मेमोरियल है वो भी अधिकांशतः बंद रहता है. चवदार तालाब के मध्य बाबा साहेब की एक मूर्ति है और गेट पर इस संघर्ष का थोड़ा सा जिक्र है.  चावदार तालाब के बाद मैंने सोचा के उस स्थल को भी देखू जहा मनुस्मृति का दहन हुआ था और २५-२७ दिसंबर तक का महिला सम्म्लेलन हुआ था लेकिन वो मुझे कही नहीं दिखाई दिया. मुझे महसूस हुआ के मनुस्मृति दहन दिवस पर लोगो ने सांकेतिक कार्यक्रम तो किये लेकिन महाराष्ट्र में उस स्थल को संरक्षित और सुरक्षित करने का कोई प्रयास नहीं हुआ जहा ये जलाई गयी थी और इससे मुझे ये अहसास हुआ के शायद सत्ताधारी इसे स्वीकार नहीं करेंगे. ये एक बहुत क्रांतिकारी कदम था और इसके स्मारक को बनाने का मतलब होगा के जातिवादियो को रोज रोज अपने इतिहास से रूबरू होना पड़ता जो उनके लिए असंभव था. मै तो दुनियाभर के आंबेडकरवादियों से कहूंगा के वे इस ऐतिहासिक स्थल को एक बड़े स्मारक के तौर पर बनाने के प्रयास जरुर करें .

महाड़ आन्दोलन ये दिखाता है के कानूनी अधिकार मिलने की बाद भी दलितों को उसे लागू करवाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है और ये के सत्ताधारी अपनी जातियों को नाराज नहीं कर सकते जब तक के इसके विरुद्ध बड़ा आन्दोलन न हो या कोई न्यायलय का रास्ता न अपनाए. दूसरी बात यह के, किसी भी आन्दोलन की जीत के पीछे हम अपनी वैचारिकता को सशक्त करना पडेगा क्योंकि ये आन्दोलन महाड़ में जरुर हुआ लेकिन इसने पूरे देश में दलितों में बहुत बड़ी चेंतना का प्रवाह किया. तीसरी बात यह के बिना महिलाओं की भागीदारी और साझीदारी के हम कोई आन्दोलन जीत नहीं सकते है और चौथे ये के छुआछूत, जातिवाद, धर्मान्धता के विरुद्ध संघर्ष केवल दलितों की जिम्मेवारी नहीं है अपितु संवेदनशील व्यक्तियों का साथ होना जरुरी है, ये वैचारिक लड़ाई है किसी व्यक्ति या जातिविशेष के विरुद्ध नहीं और यही  कारण है के मनुस्मृति को जलाने के लिए प्रस्ताव लाने वाले श्री गंगाधर नारायण सहश्र्बुद्धे चितपावन ब्राहमण थे और बाबा साहेब के बेहद करीबी मित्र भी. उनके विचारों का अनुमोदन श्री पी एन राजभोज ने किया और फिर इन दोनों ने मनुस्मृति को दहन करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया. मतलब यह के ब्राह्मणवाद या मनुवाद के विरुद्ध लड़ाई में सभी जातियों की आवश्यकता है. वैसे भी महाड़ आन्दोलन की पृष्ठभूमि को समझना भी जरुरी है. आखिर बाबा साहेब को ये सब क्यों करना पडा.

महाड तालुका महाराष्ट्र राज्य के रायगढ़ जिले का हिस्सा है और बम्बई से करीब १६५ किलोमीटर की दूरी पर है. ये सभी बाम्बे प्रेसिडेंसी का हिस्सा थे.  ४ अगस्त १९२३ को बॉम्बे विधान परिषद् में श्री सीताराम केशव बोले ने, जो नॉन ब्राह्मण पार्टी के विधायक थे और सत्य शोधक समाज का हिस्सा थे, ने एक प्रस्ताव रखा जिसमे कहा गया के वही सार्वजानिक स्थान जो जनता के पैसो से बने है और जिनका सञ्चालन सरकार द्वारा होता है  जैसे तालाब, पानी पीने के अन्य स्थल, धर्मशालाए, स्कूल, डिस्पेंसरी, न्यायलय, सरकारी कार्यालय आदि  सभी को दलितों और अन्य वंचित समुदायों के लिए बिना भेदभाव के खोल  दिया जाना चाहिए.  बोले स्वयं भंडारी समुदाय से आते है जो ताड़ी निकालने का कार्य करते थे लेकिन वह बाबा साहेब से इतना प्रभावित थे की बाद में इंडियन लेबर पार्टी के सदस्य बने और खोटी विरोधी आन्दोलन में बाबा साहेब को नेतृत्व करने के लिए बुलाये. बॉम्बे विधान परिषद् में उन्होंने बहुत से प्रगतिशील विधेयक रखे हालांकि बाद में वे हिन्दू महासभा में भी शामिल हो गए और अंत तक उसमे ही बने रहे.

जनवरी १९२४ में महाड़ नगर पालिका के अध्यक्ष श्री सुरेन्द्र टिपनिस ने बम्बई प्रेसिडेंसी द्वारा पारित किये गए प्रस्ताव को स्वीकार करने की घोषणा कर दी लेकिन जैसे कि भारत में होता है, इस घोषणा के बाद भी सार्वजानिक स्थलों पर दलित पिछडो को बैठना तो दूर की बात, पानी  तक नहीं पीने दिया जाता था और इस सन्दर्भ में कोई राजनैतिक आन्दोलन भी नहीं हो रहा था. पता नहीं गाँधी जी और कांग्रेस पार्टी कहा छुपी हुई थी, ना हीवामपंथी और ना कोई हिन्दुत्ववादी इस दौर में खडा हुआ हो और उसने ब्राह्मणों की इस सामाजिक-सांस्कृतिक राजनैतिक सत्ता को चुनौती दी हो. फिर भी १९२७ आते आते कई लोगो को ये अखरने लगा और सुरेन्द्र टिपनिस, सहस्रबुद्धे और ए वी चित्रे ने महाड़ में इस विषय में बैठक आयोजित करने का फैसला किया और बाबा साहेब आंबेडकर से सम्पर्क किया और इस प्रकार इस सभा का आयोजन बहिस्कृत हितकारिणी सभा ने किया लेकिन इस में तथाकथित बडी जातियों के भी कुछ लोग शामिल हुए.  इस बैठक की तिथि १९-२०  मार्च १९२७ रखी गयी. बाबा साहेब ने पहले से ही दलित महिलाओ में स्वाभिमान जगाने के लिए कई बैठके की थी इसलिए इस बैठक में भी बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं ने भागीदारी की. इस सम्मलेन में अपनी बात रखने के बाद बाबा साहेब के नेतृत्व में हजारो लोग चवदार तालाब की और प्रस्थान किये जहा बाबा साहेब ने उसमे हाथ की आचमन लेकर पानी पिया और इस प्रकार पानी के अधिकार को मूल अधिकार और सम्मानपूर्वक जीवन जीने के अधिकार के साथ जोड़ा.

बाबा साहेब के इस आन्दोलन से मनुवादियों में  गुस्से की लहर दौड़ गयी. शहर में तनाव बढ़ गया और ब्राह्मणवादियो ने अपने कर्मकांड से पुनः उस तालाब को शुद्ध किया. उन्होंने पानी पीने के इस घटना के साथ कई अफवाहों को बढाया लेकिन बाबा साहेब ने अपना काम कर दिया था और वह रुकने वाले नहीं थे.  उन्हें पता था के वह कानून के अनुसार काम कर रहे थे.  कई किस्म के मुकदमे ठोक कर मामले को लटकाया गया कहा गया के निजी तालाबो पर ये नियम क्यों लागू हो. बाबा साहेब ने इस केस को मजबूती से लड़ा और बम्बई उच्च न्यायलय ने अंत में १९३७ में, यानी दस वर्ष बाद, ये फैसला दिया के सार्वजनिक स्थानों पर पानी पीने का अधिकार सभी को है और सभी वहा आ जा सकते है.

बाबा साहेब आंबेडकर न केवल एक कानूनी लड़ाई लड़ना चाहते थे अपितु इस आन्दोलन के जरिये दलितों, महिलाओं, छोटे किसानो में स्वाभिमान का संचार भी करना चाहते थे. वह जानते थे के उनके जाने के बाद हालत वैसे ही होंगे और इसलिए इस सामाजिक आन्दोलन को आगे बढना ही होगा इसलिए महाड़ में ही बहिस्कृत हितकारिणी सभा ने २५ दिसंबर से लेकर २७ दिसंबर तक का एक कार्यक्रम आयोजित किया जिसमे बाबा साहेब को ही नेतृत्व करना था. मार्च की घटना के बाद, जिला प्रसाशन बाबा साहेब आंबेडकर को बहा नहीं आने देने पर तुला था. उसने अनेको प्रकार से उनको समझाया के वहा न आये. बम्बई से महाड़ आने वाली बसों ने उस दिन हड़ताल कर दी. ब्राह्मणों ने कार्यक्रम की पूर्व संध्या पर चावदार तालाब मामले में न्यायलय से स्टे ले लिया था. कार्यक्रम आयोजित करने के लिए उन्हें सार्वजानिक स्थल भी उपलब्ध नहीं करवाए गए ऐसे में एक मुस्लिम फत्ते खान ने उन्हें अपनी निजी भूमि पर कार्यक्रम करने का आमंत्रण दिया और लोगो के लिए खान पान की व्यवस्था करवाई. २५ दिसंबर को सत्याग्रहियों ने बाबा साहेब के नेतृत्व में चवदार तालाब के आगे नारे बाजी  की और वापस कार्य्रकम स्थल पर आये. शाम को भरी सभा में बाबा साहेब के सहयोगी श्री जी एन सहश्रबुद्धे ने मनुस्मृति को दहन करने का प्रस्ताव रखा और श्री पी एन राजभोज ने उसका अनुमोदन किया.  उसके बाद इन दोनों लोगो के नेतृत्व में ४ अन्य सत्याग्रहियों ने मनुस्मृति का दहन हिया.  बताया जाता है के सभा में दस हज़ार से अधिक लोग शामिल हुए.  अपने प्रस्ताव में सहश्र्बुद्धे ने कहा “ हालांकि मै ब्राह्मण हूँ लेकिन मै मनुस्मृति के ‘सिद्धांतो’ की निंदा करता हूँ. यह कोई धर्म व्यवस्था नहीं है अपितु असमानता, क्रूरता और अन्याय की व्यवस्था है. मै यह प्रस्ताव रख रहा हूँ के मनुस्मृति जो  पीढियों से लोगो की पीड़ा का कारण है, उसे दहन किया जाना चाहिए.” श्री पी. एन राजभोज ने इसका अनुमोदन किया और फिर वो हुआ जिसकी लोगो ने कभी कल्पना भी नहीं की थी.

इस सम्मलेन में केवल ‘मनु-स्मृति’ दहन का ही कार्यक्रम नहीं था, सत्याग्रहियों को शपथ भी लेनी थी जो निम्न लिखित है
१. मै चातुर्वर्ण में विश्वास नहीं करता.

२. मै जातिभेद में विश्वास नहीं करता.

  • मै समझता हूँ के छुआछूत हिन्दू धर्म का एक अभिशाप है और मै इसे ईमानदारी पूर्वक ख़त्म करने के प्रयास करूँगा.
  • मै हिन्दुओ में खान पान सम्बंधित किसी भी निषेध को नहीं मानूंगा.
  • मै मानता हूँ के अछूतों को मंदिर, पानी के श्रोतो, स्कुलो और अन्य सार्वजनिक सुविधाओं का प्रयोग करने का पूर्ण अधिकार है.

आज के दौर के लिए इस संघर्ष के मायने 

महाड़ सत्याग्रह से हम बहुत निष्कर्ष निकाल सकते है जो आज के सामाजिक राजनैतिक आन्दोलनों के लिए बहुत जरुरी है. बाबा साहेब एक विद्वान् व्यक्ति थे और वह यह जानते थे के एक किताब जला कर वो सवर्णवादी मानसकिता को ख़त्म नहीं कर सकते लेकिन वह संकेतो का महत्व भी समझते थे और इसके जरिये समाज को जागृत भी करना चाहते थे . उनके लिए ये संघर्ष एक ‘इवेंट’ नहीं था. कोई भी आन्दोलन केवल सांकेतिक नहीं हो सकता अपितु उसके विचारधारात्मक पहलू को मज़बूत होना होगा इसलिए सत्याग्रहियों के लिए प्रतिज्ञाओ आवश्यक थी. प्रतिज्ञाओ को भी यदि हम देखे तो इनमे पूरा खुलापन है और किसी जातिविशेष पर कोई भी टिपण्णी नहीं है.

लड़ाई लम्बी है इसलिए सभी जातियों के प्रगतिशील लोग चाहिए जो अपनी बिरादरियो के गलत होने पर गलत को गलत कह सकने की हिम्मत रखते हो. बाबा साहेब के साथ के प्रमुख लोगो में केवल महार या दलित ही नहीं थे अपितु ब्राह्मण, कायस्थ, मराठा, कुनबी, भंडारी आदि जातियों से भी थे. इसका मतलब यह के बाबा साहेब जाति उन्मूलन के आन्दोलन में सभी जातियों की भूमिका चाहते थे और उन्हें लगता था के सबके साथ होने से ही ये बात आगे बढ़ सकती है, आखिर यदि एक चित्पावन ब्राह्मण और एक दलित मनस्मृति को साथ साथ दहन करते है तो यह सामाजिक न्याय और बराबरी की दिशा में बहुत बड़ा कदम है. दुखद ये है के आज के ‘अस्मिताओ’ के युग में आपकी पहचान इस बात में है के आप राजनैतिक तौर पर अपनी बिरादरियो को कैसे साथ जोड़ सकते है इसलिए जातीय जोड़ तोड़ में माहिर लोग आगे है वे विभिन्न दलों में अपनी जातीय पहचान के साथ आ रहे है और इस प्रकार जाति तोड़क लोग राजनीति के हासिये पे चले गए है. दुखद बात ये है के राजनीती ने ऐसे प्रगतिशील लोगो को अपनी अपनी बिरादरियो में भी अलग थलग कर दिया है.

महाड़ आन्दोलन के ये भी सबक है के किसी आन्दोलन की सफलता के लम्बी लड़ाई की जरुरत होती है. ये सबक आज के दौर के राजनेताओं के लिए भी है जिनके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है और जो जातीय हितो से आगे नहीं बढ़ पा रहे है.  बाबा साहेब की लड़ाई में अति पिछडो, छोटे किसानो की बड़ी भूमिका थी और १९३७ के चुनावो में बम्बई प्रेसीडेंसी से इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के १७ उम्मीदवार चुनाव जीते थे इसमें १६ गैर दलित थे. ये और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि १९३७ के चुनावो में अधिकांश दलित वोट ही नहीं दे सकते थे क्योंकि भूमिहीन थे.  यही कारण था के बाबा साहेब आंबेडकर ने खोती विरोधी आन्दोलन में जाने के एस के बोले के निमंत्र्ण को स्वीकार किया और उसका नेतृत्व भी किया. बाद में बाबा साहेब ने खोती विरोधी बिल भी बम्बई लेजिस्लेटिव कौंसिल में रखा और इसे पारित करवाया. इस बिल के विरोध में बड़े किसान विशेषकर ब्राह्मण, मराठा और मुसलमान भी शामिल थे लेकिन कुनबी, महार, अग्रहरी और अन्य खेतिहर जातियों में एकता भी बनी. इसी खोटी विरोधी बिल की तर्ज पर ज़मींदारी उन्मूलन अधिनियम लाया गया. यानी बाबा साहेब मजदूरों, भूमिहीनों, छोटे किसानो, महिलाओं के प्रश्न को अपनी लड़ाई में जोड़ कर एक प्रगतिशील गठबंधन बना रहे थे जिसका वेचारिक धरातल  तर्क और मानववादी सिद्धांतो पर आधारित हो.

महाड़ आन्दोलन से महिलाओं में एक नया  नेतृत्व खड़ा हुआ और उसने अम्बेडकरी आन्दोलन को बेहद मज़बूत किया. बाबा साहेब जानते थे के किसी भी आन्दोलन की सफलता में महिलाओं की भूमिका सबसे प्रमुख है इसलिए आज के दौर में भी यदि हमें अपने आंदोलनों को मज़बूत करना है तो हमें महिलाओं, किसानो और अन्य वंचित समूहों को तो साथ लेना ही होगा अपितु उनके बीच वैचारिक क्रांति का सूत्रपात करना होगा.  यह भी जरुरी है के भारत में मात्र कानूनों के बन जाने से समस्याओं का समाधान नहीं होगा अपितु वैचारिक संघर्ष और इन कानूनों का ईमानदारी से पालन करना और करवाना भी बहुत जरुरी है और उसके लिए वैचारिक तौर पर प्रतिबध्ह लोगो की आवश्यकता होती है जो उनका मूल्याङ्कन कर सके.

आज मनुस्मृति को दिलो से हटाने की आवश्यकता है. बाबा साहेब जानते थे के बिना विकल्प के हम कभी भी कोई नया समाज नहीं बना सकते और अपने को ब्राह्मणवाद की आलोचना तक सीमित रखते है इसलिए उन्होंने बुद्ध के रास्ते का विकल्प हम सभी को सुझाया. इसलिए आवश्यक है मानववाद की इस लड़ाई में हमारे साथी बाबा साहेब की वैचारिकी को आगे बढ़ाये और मानववादी समाज की मंजिल को प्राप्त करें . इसके अलावा ये भी महत्वपूर्ण है के मनस्मृति दहन स्थल हमारे ऐतिहासिक स्थलों में कब शरीक होगा. क्या अम्बेडकरी समाज के लोग महाड़ के इन ऐतिहासिक स्थलों को एक बेहद महत्वपूर्ण स्मारक के तौर पर नहीं रख सकते ? क्या महाराष्ट्र के अम्बेडकरी समाज के लोग सरकार से इन स्थलों को अच्छे स्मारकों के तौर पर विकसित करने के बात नहीं कर सकते. ये सवाल महत्वपूर्ण है क्योंकि इतिहास का महत्वपूर्ण अंश आपकी यादो से गायब करने के प्रयास किये जा रहे है इसलिए सावधान रहने की आवश्यकता है. बाबा साहेब का आन्दोलन एक वैचारिकी का आन्दोलन भी रहा है इसलिए उनको लोगो के दिलो दिमाग से हटाया नहीं जा सकता लेकिन उनकी निशानियो को हटाने के प्रयास हो रहे है और इसलिए महाड़ आन्दोलन की इन ऐतहासिक धरोहरों को विश्वस्तरीय स्मारकों में बदलने की जरुरत है ताके हमारी भविष्य की पीढियों को पता चल सके के उनके अधिकारों के लिए बाबा साहेब ने कैसा संघर्ष किया और किस प्रकार उनके रास्तो में पर्याप्त रोड़े लगाने के बावजूद वे अपने  रास्ते पर अडिग रहे ताके समाज को न्याय दिलवा सके और नया रास्ता भी दिखा सके.

विद्या भूषण रावत

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