सच्चिदानंद सिन्हा रचनावली : समाजवाद के वैकल्पिक विज़न का दस्तावेज़

पुस्तक समीक्षा – (समाज वीकली)

-प्रेम सिंह

आधुनिक सभ्यता के गंभीर अध्येता-समीक्षक, समाजवादी चिंतक, संस्कृति-कला मर्मज्ञ सच्चिदानन्द सिन्हा का समग्र लेखन ‘सच्चिदानन्द सिन्हा रचनावली’ के रूप में प्रकाशित हुआ है। आठ खंडों की इस रचनावली के संपादक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक, शोधकर्ता अरविंद मोहन हैं। इस महत्वपूर्ण रचनावली का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन ने किया है। सच्चिदानन्द सिन्हा का लेखन अंग्रेजी और हिन्दी में है। (हालांकि वे फ्रेंच और जर्मन भाषाएं भी जानते हैं।) उनका कुछ अंग्रेजी लेखन पहले से हिन्दी में अनूदित था। खुद रचनावली के संपादक ने उनकी प्रसिद्ध पुस्तक ’कास्ट सिस्टम : मिथ, रीऐलिटी, चैलेंज’ का हिन्दी अनुवाद ‘जाति व्यवस्था: मिथक, वास्तविकता और चुनौतियां’ शीर्षक से किया था, जो राजकमल प्रकाशन से ही प्रकाशित है।

’कास्ट सिस्टम : मिथ, रीऐलिटी, चैलेंज’ सच्चिदा जी की भारत में जाति व्यवस्था के बहुचर्चित और अनुसंधित विषय पर एक अनूठी कृति है। इस पुस्तक की प्रकाशन के समय टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट में प्रमुखता से समीक्षा की गई थी। अंग्रेजी में सच्चिदा जी की अन्य प्रमुख कृतियां जैसे ‘द इंटरनल कॉलोनी’, ‘सोशलिज्म एंड पावर’, ‘द बिटर हार्वेस्ट’, इमरजेंसी इन पर्सपेक्टिव: रिप्रिव एंड चैलेंज’, ‘एडवेंचर्स ऑफ लिबर्टी’, ‘द परमानेंट क्राइसिस इन इंडिया: आफ्टर जनता’, व्हाट?’, ‘अनार्मड प्रोफेट’, ‘केओस एण्ड क्रीऐशन’ और ‘सोशलिज़म: ए मेनिफेस्टो फॉर सर्वाइवल’ रचनावली में हिन्दी में उपलब्ध कराई गई हैं। साथ ही उनकी प्रमुख हिन्दी पुस्तकें ‘जिंदगी सभ्यता के हशिये पर’, ‘भारतीय राष्ट्रीयता और सांप्रदायिकता’, ‘मानव सभ्यता और राष्ट्र-राज्य’, ‘समाजवाद के बढ़ते कदम’, ‘उपभोक्ता संस्कृति’, ‘मार्क्सवाद को कैसे समझें’, ‘पूंजी का अंतिम अध्याय’, नक्सली आंदोलन का वैचारिक संकट’, ‘संस्कृति और समाजवाद’, ‘पूंजीवाद का पतझड़’, ‘लोकतंत्र की चुनौतियां’ आदि रचनावली में शामिल हैं। सच्चिदा जी ने स्वीकार किया है कि उन्हें इन पुस्तकों की रचना की प्रेरणा समाजवादी आंदोलन के दौर में उसमें उभरी विभिन्न समस्याओं और उनके समाधान को लेकर हुए प्रयासों से मिली।

94 वर्षीय सच्चिदा जी का लेखन करीब साठ सालों की अवधि में फैला है। साथ ही उनका जीवन राजनीतिक गतिविधियों से भरा रहा है। उनका जीवन, जैसा कि एक बार उन्होंने खुद कहा था, ‘आकाश में भटकते मेघ की तरह रहा है’। ऐसे शख्स के लेखन की पूरी सामग्री जुटाने का कठिन काम संपादक और उनके सहयोगियों ने किया है। रचनावली का संपादन लेखन-क्रम के आधार पर नहीं, थीम के आधार पर किया गया है। इस पद्धति से पाठकों के लिए यह सुविधा बन गई है कि वे अपनी रुचि के विषय का खंड खरीद सकते हैं।

रचनावली के पहले खंड की भूमिका सच्चिदा जी ने लिखी है। भूमिका में उन्होंने 1942 के भारत  छोड़ो आंदोलन से शुरू हुई अपनी राजनीतिक सक्रियता की संक्षिप्त जानकारी देते हुए अपने बंबई, दिल्ली और बिहार प्रवास के बारे में बताया है। आठों खंडों में संकलित सामग्री का भी उन्होंने परिचय दिया है। पहले खंड में ‘कला, संस्कृति और समाजवाद’, दूसरे में ‘स्वतंत्रता, राष्ट्रीयता, किसान समस्या और शहरी गरीबी’, तीसरे में ‘गांधी, लोहिया, जेपी और नक्सलवाद’, चौथे में  ‘आपातकाल, जनता पार्टी का प्रयोग, पंजाब संकट और राजनीतिक गठबंधन’, पांचवें में  ‘जाति, जातिवाद और सांप्रदायिकता’, छठे में ‘नया समाजवाद, पुराना समाजवाद’, सातवें में ‘उदारीकरण, भूमंडलीकरण और भविष्य’ तथा अंतिम आठवें खंड में ‘आंतरिक उपनिवेशीकरण और बिहार-केंद्रित शोषण’ विषयक सामग्री रखी गई है।

इस परिचयात्मक समीक्षा में रचनावली में संकलित विपुल सामग्री का विस्तृत विश्लेषण संभव नहीं है। संक्षेप में ही सच्चिदा जी के चिंतन और चिंतक व्यक्तित्व की कुछ विशेषताएं रेखांकित की जा सकती हैं। सच्चिदाजी का लेखन एक साथ अवधारणात्मक-सैद्धांतिक और विवेचनात्मक है। वे विशेषज्ञ विद्वान नहीं हैं। कला से लेकर विज्ञान तक मनुष्य के प्रयासों को वे समग्रता में देखते हैं। इसीलिए आधुनिक विद्वता/शोध के प्राय: सभी अनुशासनों  राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास, धर्मशास्त्र, मनोविज्ञान, मानवशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र आदि का उन्होंने अध्ययन किया है। उनके विशाल अध्ययन की झलक उनके सैद्धांतिक लेखन के साथ विवेचनात्मक लेखन में भी मिलती है। रचनावली को पढ़ने से पता चलता है कि लेखक ने आधुनिक युग की उन्नीसवीं, बीसवीं और इक्कीसवीं शताब्दियों के विकास-क्रम में निहित बौद्धिक बहसों, आंदोलनों, संकटों और समाधानों पर गहराई से विचार किया है।

सच्चिदाजी अपने बौद्धिक उद्यम में वैश्विक स्तर पर पूरी मानवता के चिंतक ठहरते हैं। एक ऐसे चिंतक जो अत्यधिक बहस में रहने वाले, और अत्यधिक अभिलषित नारे ‘मानवीय चेहरे के साथ उदारीकरण-वैश्वीकरण’ को वैश्विक स्तर पर चुनौती देते हैं। न केवल उदारीकरण-वैश्वीकरण के मित्र आलोचक इस तरह के विचार में संभावनाएं देखते हैं, उदारीकरण-वैश्वीकरण के धुर विरोधी तक इस विचार के प्रति आसक्त पाए जाते हैं। इस बहस में सच्चिदा जी ‘मानवीय चेहरे के साथ उदारीकरण-वैश्वीकरण’ के बरक्स मानव सभ्यता के भविष्य के रूप में ‘नए चेहरे के साथ समाजवाद’ का विकल्प सामने रखते हैं।

सच्चिदा जी के समग्र लेखन में एक अंतर्दृष्टि मिलती है। इस दृष्टि का निर्माण समानता, लोकतंत्र, विकेन्द्रीकरण, व्यक्ति-स्वातंत्र्य, अहिंसा, श्रमशीलता, अपरिग्रह, सह-अस्तित्व और, बेशक, नैतिकता जैसे मूलभूत मूल्यों से हुआ है। ये सभी मूल्य उनके लेखन के केंद्र में स्थित हैं, जिनके आधार पर वे विकास और जीवन-पद्धति के पूंजीवादी मॉडल की समीक्षा करते हैं और मानव सभ्यता के वर्तमान और भविष्य के लिए समाजवादी विकल्प प्रस्तुत करते हैं। विशिष्ट बात यह है कि उन्होंने अपने जीवन में भी इन मूल्यों का निर्वहण किया है। वे किसी विश्वविद्यालय अथवा शोध-संस्थान से जुड़े नहीं रहे हैं। आजादी के आंदोलन में हिस्सेदारी करने के चलते उन्होंने स्कूली शिक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी। उनका कोई निजी पुस्तकालय भी नहीं रहा है। न ही उनका कोई निश्चित प्रकाशक रहा है। वे पुरस्कार भी स्वीकार नहीं करते हैं। एक बार उन्होंने भारत में बुद्धिजीवियों की सुविधाओं और आराम की बढ़ती मांग को लक्ष्य करके कहा था कि ब्रिटिश काल में अकादमिक और शोध का काम करने वाले अंग्रेज अधिकारी अपनी छुट्टियों के समय में बिना विशेष सुविधाओं के दूर-दराज इलाकों की यात्राएं करते थे। सच्चिदाजी गांधी की तरह मानते प्रतीत होते हैं कि मनुष्य का जीवन भोग के लिए नहीं है, मूलत: विचार के लिए है, जिसकी क्षमता कुदरत ने केवल मनुष्य को दी है।

पूंजीवाद ही नहीं, समाजवाद के प्रचलित मॉडलों में भी विकास की अवधारणा के केंद्र में उपभोक्तावादी प्रवृत्ति बद्धमूल है। भूमंडलीकरण की परिघटना ने इस प्रवृत्ति को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया है। सच्चिदाजी युद्धों, गृहयुद्धों, षड्यंत्रों, विषमताओं, विस्थापनों, पर्यावरण विनाश, प्राकृतिक आपदाओं और नैतिकता के अभाव से ग्रस्त आधुनिक सभ्यता के इस अंध-उपभोक्तावाद का समुचित विकल्प के साथ विरोध करते हैं। इस तरह वे “ससटेनेबिलिटी” की धारणा में नहीं फंसते, जिसका विकास के पूंजीवादी-उपभोक्तावादी मॉडेल का समर्थन करने वाले विद्वान/ऐक्टिविस्ट अक्सर गुणगान करते हैं। सच्चिदा जी आधुनिक सभ्यता की उपभोक्तावादी भूख के संदर्भ में अपनी पुस्तक ‘सोशलिज़म: ए मेनिफेस्टो फॉर सर्वाइवल’  के अंत में गांधी को याद करते हुए लिखते हैं: “दुनिया के पास हर किसी की जरूरत के लिए पर्याप्त है लेकिन प्रत्येक के लिए लालच के लिए उसके संसाधन पर्याप्त नहीं हैं”।

सच्चिदा जी के समस्त लेखन का केंद्रीय कथ्य समाजवाद है। उन्होंने स्वप्नवादी समाजवाद की अवधारणा से लेकर मार्क्सवादी समाजवाद के वैज्ञानिक सिद्धांत तक, और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में प्रयुक्त समाजवाद के विभिन्न माडलों का सूक्ष्म विश्लेषण किया है। सिन्हा मानते हैं कि न कोई जीनियस युग-निरपेक्ष होता है, न ज्ञान, विज्ञान एवं टेक्नॉलजी। वे समाजवाद/साम्यवाद की स्थापना की मार्क्सवाद की निश्चिततावादी धारणा का स्पष्ट खंडन करते हैं। वे साम्यवाद और पूंजीवाद के मिलन-बिंदुओं जैसे सत्ता के प्रति प्राथमिक आग्रह, केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति, उद्योगवाद, आविष्कारवाद, तकनीकीवाद, उपभोक्तावाद आदि की सुचिंतित समीक्षा करते हैं। पूंजीवाद के सामने समाजवाद के पराभव का कारण वे पूंजीवाद से जुड़े इन्हीं कारकों के साथ उसके सर्वसत्तावादी चरित्र में देखते हैं। डॉ. राममनोहर लोहिया की तरह सिन्हा लोकतंत्र, विकेन्द्रीकरण, संयमित उपभोग और नागरिक/व्यक्ति स्वतंत्रता को समाजवाद का सुदूर भविष्य का लक्ष्य न स्वीकार करके, सहज गुण स्वीकार करते हैं। यहां वे गांधी की संगति में डॉ. लोहिया द्वारा प्रतिपादित तात्कालिकता के सिद्धांत को स्वीकार करते प्रतीत होते हैं।

सच्चिदा जी मार्क्सवाद में नैतिकता के सवाल से भी जूझते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि मार्क्स के चिंतन में नैतिक तत्व की कमी नहीं है। उनका मानना है कि जब मार्क्स फैक्ट्री व्यवस्था के तहत श्रमिकों की अमानवीय स्थितियों की विस्तृत व्याख्या करते हैं, तो ‘कैपिटल’ में उनका “नैतिक आक्रोश” फूटा पड़ता है। हालांकि सच्चिदा जी के अनुसार, मार्क्स “इस नैतिक दृष्टिकोण को अपने समाजवादी सिद्धांत के केंद्र में नहीं रखते”।

सच्चिदा जी की विद्वता का एक पहलू यह कि उनका सारा लेखन अकादमिक/शोध संस्थानों के बाहर हुआ है गौर तलब है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि नवउदारवादी दौर में संस्थानों में प्रामाणिक ज्ञान और शोध का भारी अवमूल्यन हुआ है। नई शिक्षा और ज्ञान के नाम पर उच्च पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के तहत उच्च पूंजीवादी तंत्र के लिए कुशल मजदूर तैयार किए जा रहे हैं। यह सुविधा भी बहुत सीमित आबादी के लिए है। प्रोन्नतियों के लिए धन लेकर किताबें और शोध-पत्र प्रकाशित करने का एक पूरा उद्योग देश में स्थापित हो चुका है। विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों के अधिकारी खुद अपने कार्यकाल बढ़ा लेते हैं और अपनी पदवी से जुड़े अनुलाभ तय कर लेते हैं। वे खुद ही अपने को वरिष्ठ प्रोफेसर और प्रोफेसर इमेरिटस नियुक्त कर लेते हैं। शिक्षा और ज्ञान के तुच्छीकरण के साथ मौजूदा सत्ता द्वारा गैर-जिम्मेदार तरीके से शिक्षा और ज्ञान का साम्प्रदायीकरण किया जा रहा है। विश्वविद्यालयों/संस्थानों में ऊंचे पदों पर बैठे विद्वान खुशी और तत्परता से सरकार के शिक्षा और ज्ञान के नवउदारवादी-संप्रदायवादी अजेंडा को लागू कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में संस्थानीकृत ढांचे के बाहर प्रामाणिक ज्ञान और शोध की संभावनाओं की एक बड़ी खिड़की यह रचनावली खोलती है।

यहां मुझे एक घटना याद आती है। मैं भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में 1991-1994 के दौरान फ़ेलो था। तब मैंने तत्कालीन निदेशक इतिहासज्ञ प्रो. जेएस ग्रेवाल से सच्चिदा जी को संस्थान में बतौर नेशनल फ़ेलो आमंत्रित करने का निवेदन किया था। सच्चिदाजी की दो पुस्तकें ‘कास्ट सिस्टम’ और ‘सोशलिज़म एंड पावर’ संस्थान के पुस्तकालय में उपलब्ध थीं। मैंने प्रो. ग्रेवाल को वे पुस्तकें दीं। उस समय संस्थान में प्रो. रणधीर सिंह, प्रो. जेडी सेठी और प्रो. जीएस भल्ला नेशनल फ़ेलो के रूप में उपस्थित थे। प्रो. ग्रेवाल ने सवाल किया कि सिन्हा जी किस विश्वविद्यालय अथवा संस्थान से सम्बद्ध रहे हैं। जब मैंने कहा कि वे एक राजनीतिक कार्यकर्ता भर हैं तो उन्हें काफी आश्चर्य हुआ। उन्होंने अपनी सहमति जताई और मुझसे कहा कि मैं सिन्हा जी से पूछ लूं कि वे कब शुरू में दो साल के लिए नेशनल फ़ेलो होकर यहां आ सकते हैं। मैंने सच्चिदाजी से पत्र लिख कर इस बारे में पूछा। उनका तत्काल जवाब आया कि अगर वे दिल्ली रह रहे होते तो जरूर यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेते। 1987 में वे दिल्ली से बिहार के मणिका गांव लौट चुके थे। तब से वे वहीं रहते हैं। मैंने सोचा, एक तरह से यह अच्छा हुआ। वे संस्थान की सुख-सुविधाएं देख कर दुखी ही होते।

सच्चिदाजी हिन्दी में काफी पढ़े जाने वाले लेखक हैं। उनकी रचनावली आने से खास कर हिन्दी माध्यम के शोधार्थी लाभान्वित होंगे। पूरी रचनावली या उसके कुछ अंश अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रकाशित हों तो उपयोग का दायर बढ़ेगा। अंग्रेजी संस्करण भी प्रकाशित होना चाहिए। मेरी इच्छा है कोई अच्छा अंग्रेजी का प्रकाशक यह महत्वपूर्ण काम जल्दी से जल्दी करे। रचनावली के प्रत्येक खंड के अंत में अनुक्रमणिका दी जाती तो बेहतर होता।

पुस्तक : सच्चिदानन्द सिन्हा रचनावली
खंड : आठ 
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : पेपरबैक संस्करण : 4000 रुपये 

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