उत्तर भारत में पिछड़ी जातियों को पेरियार के आत्म सम्मान आन्दोलन की आवश्यकता

द्रविड़ आन्दोलन के एक प्रमुख स्तम्भ श्री के वीरमणि से विद्या भूषण रावत की बातचीत

(समाज वीकली)- श्री के वीरामणि द्रविड़ आन्दोलन के सबसे वरिष्ट सदस्य है. २ दिसंबर १९३३ को कड्डलूर तमिलनाडु में पड़ा हुए वीरमणि आज भी शेर की तरह दहाड़ रखते है और अपने गुरु थान्थई पेरियार के सिद्धांतो और पद चिन्हों पर चलते हुए उन्होंने राजनीति में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप भी किये लेकिन सत्ता की राजनीति से बहुत दूर रहे. उनके लिए संसद की राह बहुत आसान होती और वह बहुत महत्वपूर्ण ओहदा भी संभाल रहे होते लेकिन यदि वह ये सब में उलझे होते तो पेरियार के स्वाभिमान आन्दोलन को कैसे मज़बूत करते. आज तमिलनाडु में द्रविड़ियन विचारधारा की ही प्रमुख पार्टिया है और तथाकथित राष्ट्रीय पार्टिया पूरे तरह से हासिये पे है. तमिलनाडु देश के अन्दर अकेला ऐसा राज्य है जहा पिछड़े वर्ग के लिए 50% आरक्षण है, दलितों के लिए १८% और आदिवासियों के लिए १% और इस प्रकार राज्य का कुल आरक्षण ६९% है. ये कोई आसान बात नहीं थी लेकिन यही पर पेरियार की बातो को समझना पडेगा के राजनितिक दल समझौता परस्त होते है और सत्ता में रहने के लिए उन्हें समझौता करना पड़ता है लेकिन सामजिक आन्दोलन ही असली क्रांति ला सकते है. पेरियार ने बिना सत्ता में रहते हुए तमिलनाडु के सामाजिक, राजनैतिक जीवन में जो क्रांतिकारी बदलाव लाये है उसके विषय में उत्तर भारत में सही जानकारी का अभाव दिखता है. उत्तर भारत में अक्सर ‘बहुजन डिस्कोर्स’ में पेरियार को भगवानो की ‘आलोचना’ करने वाला या उनका ‘हिंसक’ विरोध करने वाला बताया जाता है जो जीवन पर्यंत किये गए पेरियार के कामो और आन्दोलनों का पूरी तरीके से गलत विश्लेषण है.. दरअसल, हम लोग ये बात बहुत चटखारे लेकर सुनते है के पेरियार ने कैसे राम और कृष्ण की आलोचना की और ‘सच्ची रामायण’ लिखी. पेरियार को मात्र ‘सच्ची रामायण’ के जरिये जानना बहुत बड़ी भूल होगी और उनके जिंदगी भर के क्रांतिकारी संघर्ष को बहुत कम करके आंकना होगा. पेरियार नास्तिक थे और तर्कवादी थे इसलिए उन्होंने सामाजिक और सांस्कृतिक परिपेक्ष्य में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के न केवल आलोचना की अपितु लोगो को द्रविड़ संस्कृति की विरासत अपनाने का विकल्प भी मौजूद करवाया. श्री के वीरामणि ने १० वर्ष की आयु से पेरियार आन्दोलन में हिस्सेदारी शुरू की और लोगो के बीच बोलना शुरू किया. पेरियार ने उनके उत्साह और योग्यता को व्यक्तिगत तौर पर संवारा और बदले में वीरमणि ने अपनी पूरी जिंदगी पेरियार और द्रविड़ आन्दोलन को समर्पित कर दी. १९७३ में पेरियार की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी अन्नाई मनिआम्माई ने द्रविड कड़गम की कमान संभाली और उनकी १९७८ में उनकी मृत्यु के बाद डाक्टर के वीरामणि ही द्रविड़ आन्दोलन को पेरियार की दिशा दे रहे है. वीरमणि ५० से अधिक बार जेल जा चुके है. १९७८ में इमरजेंसी में उन्हें मीसा कानून के तहत एक साल की जेल हुई थी. और १९६२ से तमिल दैनिक विदुथालाई ( मुक्ति) के सम्पादक है. इसके अलावा वह उन्माई ( पाक्षिक ) और पेरियार पिंजू ( मासिक) पत्रिकाओ के सम्पादक भी है. पेरियार के समय से ही महिलाओं और बच्चो में तर्क और सामजिक प्रश्नों पर ये पत्रकाए तमिल भाषा में निकाली जाती रही. अंग्रेजी में वह मॉडर्न रेशनलिस्ट नामक मासिक पत्रिका के सम्पादक है. इस प्रकार पेरियार के विचारों के प्रसार के लिए शुरू से ही साहित्य और राजनैतिक चिंतन पर विशेष जोर दिया गया. कई पुस्तकों के रचियता, के वीरमणि शुरू से ही पेरियार के साथ साए की तरह रहते थे और यही कारण है के द्रविड़ आन्दोलन और पेरियार की विचारधाराओं के प्रश्न पर वह सबसे अधिक ऑथेंटिक आवाज माने जाते है.

१९४४ में पेरियार ने द्रविड कड़गम की स्थापना की और जनता और समाज से सीधे संवाद करके तमिलनाडु में बड़े बड़े परिवर्तन लाये. पेरियार की मृत्यु के बाद भी उनका नाम लेकर ही सरकारे आयी और कोई भी पिछडो और दलितों का विरोध करके सरकार नहीं बना पाया. तमिलनाडु में ६९% आरक्षण है जिसमे पिछड़े वर्ग के लिए ५०% आरक्षण है और इन सबमे द्रविड़ कड़गम की बहुत बड़ी भूमिका है.

तमिलनाडु के पेरियार स्थापित द्रविड़ आन्दोलन ने मुझे बहुत प्रभावित किया है और समय समय पर उन आन्दोलन के प्रमुख लोगो से मै बातचीत करता रहा हूँ और तमिलनाडु के एक बड़े हिस्से को मैंने देखा है. २००५ में सूनामी के उपरांत उपजे हालत को देखने के लिए मैंने तमिलनाडु और पुद्दुचेरी का एक विस्तृत दौरा किया था. श्री के वीरामणि से मैंने २०१५, २०१९ और २०२० में तीन बड़े साक्षात्कार किये जिनमे दो उनके कार्यालय पेरियार थिडाल में और एक ऑनलाइन बातचीत थी. एक साक्षात्कार ऑनलाइन उपलब्ध है और बाकी दो भी भी शीघ्र ही उपलब्ध होंगे. अभी का साक्षात्कार २८ अक्टूबर २०१५ को पेरियार थिदाल चेन्नई में लिया गया. दरअसल, इंटरव्यू के एक दिन बाद ही चेन्नई में भयंकर बारिश हुई थी जिसके कारण पेरियार थिद्दल में भी भयंकर पानी भर गया था और फिर बहुत समय तक ये रिकॉर्डिंग भी लगभग फाइलों में दब के रह गयी और फिर वहा मित्रो की मदद से इसे दूंढ निकाला गया.

ये साक्षात्कार आज के परिपेक्ष्य में इतना आवश्यक है जब उत्तर भारत की पिछड़ी राजनीति के सामने बड़ा संकट है. सवाल इस बात का नहीं है के वे सत्ता में आएँगी या नहीं अपितु इस बात का के क्या वे दलित पिछडो के सवालों को चुपचाप हासिये पे रखते रहेंगे ताके ‘ब्राह्मण’ या ‘सवर्ण’ नाराज न हो. मेरा सबसे पहला सवाल यही था के आखिर पेरियार को क्यों ऐसा लगता था के सामजिक आन्दोलन बदलाव के लिए अधिक जरुरी है क्योंकि सत्ता तो आती है और जाते है और सत्ता में बने रहने के लिए अक्सर लोग समझौता कर लेते है. वीरमणि बताते है के पेरियार को अगर मुख्यमंत्री बनना होता तो वो मद्रास प्रेसीडेंसी के मुख्यमंत्री आजादी से पहले बन सकते थे. दरअसल, द्रविड़ आंदोलन मूल रूप से साउथ इंडियन लिबरल फेडरेशन के रूप में शुरू हुआ था जिसका एक अंग्रेजी भाषा में दैनिक मुखपत्र था ‘जस्टिस’ जो बहुत ही लोकप्रिय था. साउथ इंडियन लिबरल फेडरेशन को अधिकांश लोग जस्टिस के नाम से ही जानते थे इसलिए लोग उन्हें जस्टिस पार्टी कहकर ही बुलाते थे. इसलिए ये बात ध्यान रखने की है के पेरियार ने जस्टिस पार्टी नहीं बनाई अपितु कांग्रेस छोड़ने के बाद १९४४ में वह इसके अध्यक्ष बने और यही से पेरियार ने स्वाभिमान आन्दोलन की नीव रखी. एक पार्टी और आन्दोलन में फर्क होता है. पार्टी एक उद्देश्य विशेष के लिए बनती है जबकि आन्दोलन की कोई सीमा नहीं होती और वह सततशील होता. पेरियार कहते थे पार्टिया आएँगी-जायेंगी लेकिन आन्दोलन चलता रहेगा. डी एम् के द्रविड़ आन्दोलन से निकली पार्टी है , उससे भी मतभेद होकर ए डी एमके बनी. अब तो बहुत सी पार्टिया है जो वोट की खातिर पेरियार का नाम लेती है और अपने को द्रविड़ भी कहती है लेकिन वो द्रविड़ आन्दोलन नहीं है., वे पेरियार की मूवमेंट से नहीं है. पेरियार का आन्दोलन और विचारधारा को आगे लेजाने का काम डी के कर रही है. पार्टिया अपने वोटो की खातिर समझौता करती है जबकि आन्दोलन समाज से जुड़े हुए होते है इसलिए जब मीडिया राजनैतिक दलों की मौक़ा परस्ती को पेरियार के आन्दोलन या द्रविड़ आन्दोलन से लिंक करते है तो वह झूठ है और पेरियार को बदनाम करने की साजिश है. द्रविड़ आन्दोलन राजनैतिक दल नहीं चला ते अपितु द्रविड़ कड़गम ने ही उसे ज़िंदा रखा है. याद रखिये पेरियार ने अपने आन्दोलन को क्यों द्रविड़ आन्दोलन कहा क्योंकि अगर मात्र तमिल अस्मिता का प्रश्न होता तो तमिलनाडु में ब्राह्मण भी है वे भी इसमें शरीक होते लेकिन पेरियार द्रविड़ समाज के अन्दर स्वाभिमान और उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे थे इसलिए उन्होंने द्रविड़ कड़गम की स्थापना भी की.

पेरियार आन्दोलन की अभूतपूर्व लोकप्रियता के चलते उनके बहुत से शिष्यों में राजनीति के प्रति आशक्ति हो गयी और उन्होंने पेरियार की मनिआम्माई से विवाह के प्रश्न को मुद्दा बनाकर डी एम् के नामके राजनैतिक दल की स्थापना कर अपने को आन्दोलन से अलग कर लिया. वीरमणि कहते है के पेरियार के पास बहुत सम्पति थी और वह सब कुछ एक ट्रस्ट के नाम कर अपने को आजाद रखना चाहते थे. मनिअम्माई उनके आन्दोलन से हमेशा जुडी रही और दोनों एक दुसरे को बहुत अच्छे से जानते थे, बहुत वर्षो से वह पेरियार की सचिव बन कर उनके साथ खडी थी. उनके परिवार के लोगो को भी इस रिश्ते से कोई परेशानी नहीं थी. दोनों को एक दूसरी की आवश्यकता थी और समाज को भी इसलिए इस रिश्ते को लेकर पेरियार से अलग होने वाले दरसल अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओ को पूरा करना चाहते थे और उन्होंने ये सवाल खड़े कर अलग होने का बहाना ढूंढ लिया. बिना राजनीति के भी पेरियार ने राजनीति को प्रभावित किया फलसरूप संविधान का पहला संशोधन १९५१ में हुआ जिसके तहत राज्य अपने यहाँ सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगो के लिए स्वतंत्र रूप से आरक्षण का प्रावधान कर सकते है. आज तमिलनाडु में पिछड़ी जातियों के लिए जो ५०% आरक्षण है वो पेरियार के संघर्ष का ही परिणाम है.

आज पेरियार पहले से अधिक सामयिक हो गए है. क्या कारण है कि ब्राह्मणवादी लोग अब बाबा साहेब आंबेडकर का नाम तो ले लेते है लेकिन पेरियार का नहीं. दरअसल वे बाबा साहेब को भी नहीं चाहते लेकिन पेरियार से तो दूर दूर भागती है. . वीरामणि कहते है के हिंदुत्व ने देश के बहुत से राज्यों को अपना गढ बना लिया है लेकिन तमिलनाडु हिंदुत्व को हमेशा अस्वीकार करता रहेगा और इसका कारण है यहाँ के सामाजिक, राजनितिक और सांस्कृतिक जीवन में द्रविड़ आन्दोलन और पेरियार की विचारधारा का असर . वीरमणि बाबा साहेब को हिमालय कहते है और पेरियार को ज्वालामुखी. उपमा देकर वह बताते है के हिमालय के पास लोग जाते है लेकिन ज्वालामुखी के पास जाने से तो भस्म होने का खतरा है.

पेरियार और बाबा साहेब के विषय में वह बताते हैं के दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं. बाबा साहेब की धर्म में आस्था थी, वह राजनीति को बदलाव का हथियार मानते थे इसलिए संसदीय चुनावों में हिस्सा भी लिया. पेरियार पूरी तरह से नास्तिक थे और सामजिक क्रांति को राजनीति सशक्तिकरण के लिए एक आवश्यक शर्त मानते थे यानी राजनितिक बदलाव तब तक संभव नहीं है जब तक सामाजिक बदलाव नहीं आ जाता जिसे बाद में बाबा साहेब ने भी माना. पेरियार ने भी बुद्ध धम्म की सराहना की और बुद्ध को प्राचीन भारत में तर्कवाद का प्रणेता बताया. बहुत से लोगो ने पेरियार को भी २० वी सदी का बुद्ध बताया . वो कहते है सभी तर्क्शील व्यक्ति अपने आप में बुद्धा है . बाबा साहेब और पेरियार दोनों तर्कवादी थे , दोनों ने ब्राह्मणवाद का विरोध किया और वैज्ञानिक चिंतन के पक्षधर थे.

मैंने उनसे कुछ तथाकथित ‘प्रगतिशील’ पत्रकारों, लेखको की बात की जो अम्बेदाकर्वादियो की आड़ में पेरियार पर हमला कर रहे थे और उन्हें दलित विरोधी करार दे रहे थे. एक ने तो यहाँ तक लिख दिया के तमिलनाडु में पेरियार की मूर्तियों को अब कोई पूछता नहीं है.

वीरमणि मेरा इशारा समझ गए . वो कहे पेरियार और आंबेडकर दोनों ने ही ब्रह्मवाद का विरोध किया . पेरियार ने तमिलनाडु में सभी गैर ब्राह्मण जातियों को एक किया जिसमे दलित और पिछड़े शामिल थे. केरला में वैकोम में दलितों के मंदिर प्रवेश के लिए पेरियार ने सबसे बड़ा आन्दोलन किया और इसके बाद ही उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा भे दिया. वह कहते है के अगर केवल एक सीट की आरक्षण में बची है तो वह सीट पहले दलितों को मिलनी चाहिए. आज हर एक जाति पेरियार का नाम लेकर राजनीति कर रही है. वह कहते है के जातीय अस्मिता केवल आरक्षण तक ही सीमित रहने चाहिए क्योंकि हर समय इसका इस्तेमाल केवल हमारी एकता को कमजोर करेगा. वह यह भी बताते है के कोई भी व्यक्ति यदि अपने आप को पेरियारवादी कहता है तो उसे दलितों की सुरक्षा के सवाल पर न केवल आगे खडा होना होगा अपितु उनके आरक्षण के प्रश्नों पर भी समर्थन करना होगा. यदि आप पेरियारवादी है तो पहले स्वयं को पूर्वाग्रहों से मुक्ति लेनी होगी तभी दूसरो को सही दिशा दे पाओगे. जो लोग मात्र जाति के आधार पर पेरियार का विरोध करते है उन्हें सोचना होगा के वैकम का सत्याग्रह पेरियार ने किसके लिए किया था ? ये कोई ब्राह्मणों के लिए तो नहीं था और ना ही सवर्णों के लिए ? जिन लोगो ने पेरियार आंबेडकर को पढ़ा नहीं है वो उन्हें भगवान् बना देना चाहते है ताके लोग उनकी विचारधाराओ और कार्यो पर चर्चा नहीं करें. जस्टिस पार्टी ने शुरूआती दिनों से ही दलितों के स्कूल खोले और पिछड़ी जातियों के विकास की बात की.

ये बात भी समझने की है के हम ‘सोये’ हुए लोगो तो जगा सकते है लेकिन जो सोने का बहाना कर रहे है उन्हें नहीं.

मैं हिंदुत्व के खतरे के विषय में पूछता हो तो वो कहते है के अपने बचपन से ही वह द्रविड़ आन्दोलन जुड़े रहे है. पेरियार ने आन्दोलन को मज़बूत करने के लिए विरुथालाई नमक दैनिक समाचार पत्र की स्थापना १९३५ में की. मुझे ५५ वर्ष से अधिक हो गए इसके संपादक बने क्योंकि पेरियार ऐसा चाहते थे. एक आन्दोलन , एक झंडा, एक कमीज . सेमिनार, विचार गोष्टिया, आन्दोलन, सम्मेल्लन, जन सभाए, रास्ता रोको सभी तो था. हाँ, पेरियार समझते थे के आन्दोलन को हर किस्म के लोग चाहिए इसलिए उन्होंने डी के ( द्रविडा कड़गम) के अलावा रेशनलिस्ट फोरम की स्थापना भी की क्योंकि हमारे साथ सरकारी लोग भी जुड़े थे और वे लोग सीधे सीधे राजनैतिक गतिविधियों में भाग नहीं ले सकते थे इसलिए उन्हें जोड़ने के लिए रेशनलिस्ट फोरम या तर्कवादी फोरम बनाया गया ताके उनकी भी भागीदारी हो सके.

पेरियार के समय तमिलनाडु में आरक्षण ४१% था जिसमे पिछड़े वर्ग के लिए २५% और अनुसूचित जातियों के लिए १६% जिसमे आदिवासी भी शामिल थे क्योंकि यहाँ आदिवासियों की आबादी १% से भी कम है. लेकिन सरकार होने के अपने लाभ है. पेरियार ने करूणानिधि को सलाह दी के पिछडो का आरक्षण २५% से बढ़ाकर ३१% कर दिया जाए और दलितों आदिवासियों के आरक्षण को १८% किया जाए ताके सुप्रीम कोर्ट की ५०% की सीलिंग के नीचे रहे और करूणानिधि ने उनकी बात मान ली. जब तमिलनाडु में एम् जी आर के नेतृत्व में ए आई डी एम् के की सरकार बनी तो किसी ने उनके दिमाग में ‘जहर’ भर दिया और एम् जी आर ने पिछड़े वर्ग के आरक्षण में ९००० हज़ार रुपैये मासिक की आय से कम की शर्त लगा दी ( मतलब ये के जिनके मासिक आय ९००० रुपैये महीना से कम की होगी उन्हें ही पिछड़े वर्ग का माना जाएगा,) तो डी के ने इसके विरुद्ध आन्दोलन किया. एम् जी आर तो बहुत जनप्रिय नेता थे क्योंकि सिनेमा के स्टार भी थे लेकिन डी के ने उनके विरुद्ध जबरदस्त आन्दोलन शुरू किया. हमने कहा के आपने सामजिक न्याय को नहीं समझा है. ये साफ़ तौर पर कहता है सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े वर्ग के लोग और कही पर भी इसमें आर्थिक शब्द का प्रयोग नहीं है. पिछड़ी जातियों को आप सामजिक और शैक्षणिक तौर पर ही निर्धारित कर सकते हो, आर्थिक क्राइटेरिया इस्तेमाल कर आप पिछड़े वर्ग की अवधारणा नहीं बना सकते. सभी ब्राह्मण आर्थिक आधार पर आरक्षण चाहते है, मोहन भागवत भी वही कहते है. १९७८ पेरियार का जन्म शताव्दी वर्ष था इसलिए हमने एम् जी आर से कहा के क्या आप पेरियार के सिद्धांतो को जमीन में गाढ देना चाहते है. हमने सार्वजनिक तौर पर उस जी ओ की प्रतिया जलाई. आन्दोलन मजबूत हो रहा था और तमिलनाडु में डी एम् के, कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टीयो ने भी इस बिल का जमकर विरोध करना शुरू किया. मुख्यमंत्री ने एक मीटिंग बुलाई जिसका डी एम् के ने बायकाट किया लेकिन मै वहा गया. मुख्य मंत्री बार बार पिछड़े वर्ग के ‘गरीब’ लोगो की बात कर रहे थे. मैंने उन्हें मजबूती से बताया के आर्थिक आधार को सामजिक न्याय से न जोड़े. धीरे धीरे उनके समझ में बात आ गयी और उनको पता चल गया के तमिलनाडु में पिछड़े वर्ग का विरोध कर आप कुछ नहीं कर पायेंगे. एम् जी आर ने अपना आदेश वापस ले लिया और पेरियार की मृत्यु के बाद उनके आन्दोलन की यह एक बहुत बड़ी जीत थी. एम् जी आर ने उसके बाद एक कदम आगे बढ़ कर पिछड़ी जातियों का आरक्षण ५०% कर दिया, दलितों १८% और आदिवासियों को १% . इस प्रकार तमिलनाडु ने वो कर दिखाया जो देश के किसी भी हिस्से में नहीं है. फिर ब्राह्मणवादी ताकते इसके विरोध में आ गयी. जब डी एम् के भाजपा के साथ थी तो हमने जयलालिथा का साभ निभाया. ये ताकते सुप्रीम कोर्ट के मंडल निर्णय का हवाला देने लगी के आरक्षण की कुल सीमा ५०% है इसलिए तमिलनाडु सरकार का निर्णय अवैध हो जाएगा. तब हमने संविधान के अनुच्छेद ३१ सी का हवाला देते हुए एक पेटीशन तैयार की और तमिलनाडु की सभी पार्टियों में एकमतता कर केंद्र सरकार पर दवाब डाला गया और विधान सभा ने सर्व सम्मति से तमिलनाडु में ६९%आरक्षण को ९ वी अनुसूची का प्रस्ताव पारित कर दिया. तमिलनाडु के सभी राजनितिक दलों और सामजिक संघठनो ने संयुक्त रूप से केंद्र सरकार पर जबरदस्त दवाब बनाना शुरू किया जिसके कारण संविधान का ७६ वा संशोधन ३१ अगस्त १९९४ को पारित हुआ, फलस्वरूप तमिलनाडु में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन जातियों और पिछड़े वर्ग के लोगो के लिए राज्य सरकार द्वारा प्रदान किया गया आरक्षण ६९% जो सुप्रीम कोर्ट की लगाईं ‘सीमा’ के उपर है , को संविधान की ९वी अनुसूची में डाल दिया गया ताके विधान सभा द्वारा लिए गए सर्वसम्मत निर्णय की वैधानिकता को किसी भी न्यायालय में चुनौती न दी जा सके. इसे समझिये के जयलालिथा ब्राह्मण थी, प्रधान मंत्री नारिस्म्हा राव भी ब्राह्मण थे और भारत के राष्ट्रपति भी उस समय ब्राह्मण थे लेकिन सभी ने इस संशोधन को पारित हो जाने दिया. इसका अर्थ ये है के आन्दोलन में बहुत ताकत होती है और हमने पेरियार के कथन को सही साबित किया है. वाकई में यदि केवल इसे पार्टियों के हवाले कर दिया जाता तो तमिलनाडु में इतना ऐतिहासिक निर्णय नहीं हो पाता . पार्टियों को ऐसा सोचने पर मजबूर किया पेरियार के द्रविड़ आन्दोलन ने.

वीरमणि बताते है कि आज भी तमिलनाडु में वी पी सिंह बहुत सम्मान के साथ याद किये जाते है. उनके नाम से कई बच्चो का नामकरण हुआ है. मंडल लागू करने के उनके ऐतिहासिक निर्णय में डीके ने बड़ी भूमिका निभाई और राम विलास पासवान ने मुझे वी पी सिंह से मिलवाया और फिर हमने उन्हें तमिलनाडु के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के विषय में बताया था जिसे उन्होंने अपने संसदीय वक्तव्यों और भाषणों में स्वीकार भी किया. पिछड़े वर्ग के लोगो को वी पी सिंह को कभी नहीं भूलना चाहिए. डी के और तमिलनाडु में अन्य राजनितिक दलों के लोग वी पी सिंह जन्म दिन और पुण्य तिथि पर उन्हें हमेशा याद करते हैं.

एक प्रश्न जो मेरे दिमाग में हमेशा से आता था और वो ये के पेरियार उत्तर प्रदेश जब आये थे तो क्या हुआ क्योंकि अब तो सामजिक न्याय का नाम लेने वाली पार्टिया भी पेरियार का नाम नहीं लेंना चाहते . वीरामणि मुझे उस ऐतिहासिक दौर की बात बताते है जब पेरियार लखनऊ आये. ये १९६८ की बात है. वीरामणि पेरियार के साथ थे और उनकी बातो का अंग्रेजी में अनुवाद करते थे. पेरियार तमिल में बात रखते थे और वह उसे अंग्रेजी में कहते और फिर कोई दूसरा हिन्दी में उसका अनुवाद करके लोगो को बताता. कार्यक्रम लखनऊ विश्विद्यालय में हुआ. पेरियार को छेदी लाल साथी ने आमंत्रित किया था. ललाई सिंह यादव ने उनसे सच्ची रामायण को हिंदी में अनुवाद करने की अनुमति मांगी और उन्हें कानपूर आमंत्रित किया. पहले लोगो में बहुत से ऐसे थे जो काला झंडा लेगे उनका विरोध कर रहे थे. पेरियार जब बोलना शुरू हुए तो उन्होंने कहा के मै अपने आप उत्तर प्रदेश नहीं आया हूँ. आप लोगो ने मुझे यहाँ बुलाया है इसलिए यहाँ आया हूँ. उन्होंने छात्रो से कहा के शांत हो जाए और मुझे सुने. ये मेरी इच्छा नहीं थी लेकिन आप लोगो ने मुझे आमंत्रित्क किया. मै आपका अतिथि हूँ. मै बहुत स्वाभिमानी व्यक्ति हूँ. मै आपको आत्म सम्मान के विषय में बताना चाहता हूँ.मै यह नहीं कह रहा के जो मै कह रहा हूँ उसे आप आँख मूँद कर विश्वास कर लो. अपने तर्क और विवेक का प्रयोग कर मेरी बातो को समझा. आप शुद्र और दलित कैसे हो सकते है यदि आप आत्म सम्मान आन्दोलन को नहीं समझते. क्या आप जानते है मै किस जाति या वर्ग से आता हूँ. और जब लोगो ने पेरियार को सुनना शुरू किया तो फिर पेरियार की जय, पेरियार जिंदाबाद के नारे लगने लगे. कुछ असामाजिक तत्वों ने गड़बड़ करने की कोशिश की लेकिन लोगो ने उन्हें खदेड़ दिया. जब हम आये थे तो बहुत गलतफहमिया थी लेकिन जब वापस गए तो एक अच्छी दोस्ती बन चुकी थी. जब पेरियार अपनी बाते रख रहे थे तो सभा स्थल पर बिलकुल शांति थी. वह बताते है इस कार्यक्रम में चंद्रजीत यादव भी मौजूद थे.

उत्तर भारत में पेरियार को समझने की आवशयकता है और ये इसलिए भी जरुरी है जब दलित-पिछड़े वर्ग के नाम पर काम कर रही पार्टियों ने आरक्षण और सत्ता में भागीदारी के प्रश्नों को बिलकुल अजेंडे से बाहर कर दिया है. १९४० से १९५४ के बीच पेरियार और बाबा साहेब चार बार मिले थे जिनमे एक बार म्यांमार की राजधानी रंगून में विश्व बौध सम्मेल्लन और बम्बई के धारावी में एक जन सभा का संबोधन जिसमें पेरियार के भाषण का अंग्रेजी अनुवाद अनुवाद सी. के अन्नादुर्रै कर रहे थे. यही अन्ना दुर्रे बाद में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने लेकिन पेरियार सत्ता से दूर जनता के प्रश्नों पर हमेशा सरकारों को आगाह करते रहे और उन्ही के प्रयासों का आज परिणाम है के तमिलनाडु में आरक्षण के प्रश्न पर सभी दलो में आम राय है और समाज कल्याण की बहुत सारी योजनाओ में तमिलनाडु देश में प्रथम स्थान पर है. आरक्षण के कारण तमिलनाडु में कही पर भी योग्यता और सरकार की कार्य क्षमता पर कोई असर नहीं पडा है अपितु ये अन्य राज्यों की तुलना में बहुत बेहतर है. काश, उत्तर भारत में पेरियार के विचारों को समझनें और अपनाने की क्षमता होती तो पिछड़े वर्ग के लोगो के आरक्षण के प्रश्न पर पार्टिया धोखाधड़ी नहीं करती.

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