सामाजिक एकता, संवेदनशील मुददे और चुनाव

– विभूति मनी त्रिपाठी   
देश में चुनाव का मौसम अपने चरम पर पहुंच चुका है, हर एक राजनीतिक दलों द्वारा अपने अपने तरफ से मतदाताओं  को लुभाने का पूरा प्रयास किया जा रहा है, आज कल विभिन्न राजनीतिक दलों और  राजनेताओं द्वारा अपने आप को जनता का सच्चा सेवक साबित करने की एक होड़ सी लगी हुई हंै, लेकिन वास्तव में जनता का सच्चा सेवक कौन है यह किसी से भी छिपा नही है क्यूंकि अब भारत देश को  लाल बहादुर शास्त्री और अटल बिहारी बाजपेयी जैसे जमीन से जुड़े राजनेताओं का दुबारा मिलना मुमकिन नही है, जिनके जीवन का सिर्फ एक ही मकसद था, वह था  देश और जनता की निस्वार्थ भाव से सेवा  करना ।
Vibhooti Mani Tripathi

आज के समय की बात की जाये तो बस चुनाव के समय ही राजनेताओं को आम जनता की याद आती है और चुनाव खत्म होते ही सब कुछ खत्म हो जाता है । बेचारी आम जनता, अपने जगह पर ही रह जाती है, आम जनता की समस्या वैसी की वैसी ही रह जाती है और गरीब आम जनता फिर अपने रोजी रोटी की व्यवस्था में लग जाती है ।

विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का गौरव तो हमारे देश को प्राप्त है लेकिन अगर  आम जनता से जुड़े मुददों की बात की जाये या आम जनता के जीवन में हुये बदलाव की बात की जाये  तो,  मन को व्यथित करने वाले गंभीर परिणाम निकल कर सामने आयेगें, जो देश के हर एक नागरिक को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देगें ।
देश के आजाद होने के इतने वर्ष बाद भी अगर हमारे देश में आम आदमी की मूल भूत समस्यायें ज्यों की त्यों बनी हुई हंै तो इसके लिये हम सब जिम्मेदार हैं, क्यूंकि हम सब ही बार बार ऐसे फिरका परस्त राजनेताओं को मौका देते हैं, जो सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने के लिये ही जनता के सामने आते हैं और हम सब बार बार ऐसे ही राजनेताओं को अपना प्रतिनिधि चुन कर भेजते हैं, आखिर ऐसा क्यूं होता है ??? इसके लिये तो हम सब ही जिम्मेदार हैं ।
    समय बदल रहा है , लोग बदल रहे हैं और लोगों की विचारधारायें भी बदल रही हैं, जनता अब राजनेताओं के हर एक चाल को समझने लगी है और कई मौकों पर आम जनता ने अपने वोटों की ताकत का एहसास भी हमारे राजनेताओं को करवाया है, लेकिन शायद अभी यह प्रयास काफी नही है, क्यूंकि आज भी हमारे राजनेता, आम जनता को विभिन्न मुददों पर बहला फुसला कर अपने पक्ष में वोट करवाने में सफल हो जा रहे हैं।
    हमारे देश में कुछ ऐसे मुददे हैं जिनको जान बूझ कर जिंदा बनाये रखा गया है, इन्ही मुददों की दुहाई दे कर बार बार जनता से वोट मांगा जाता है, आम जनता बार बार राजनेताओं के जाल में फंस जाती है और अपने मूल मुददों को भूल कर  प्रायोजित मुददों में फंस कर अपने महत्वपूर्ण मत को बेकार कर देती है । ऐसे मुददे जिन पर हमारे यहां सालों से वोट मांगा जा रहा है उनमें से प्रमुख हैं राम मंदिर ।
    राम मंदिर की बात की जाये तो हम सब यह जानते हैं कि यह आस्था से जुडा़ हुआ विषय  है, इसका सीधा संबंध हमारी सनातन हिन्दू परंपरा से है । हम सभी के आदर्श परम प्रिय प्रभु श्री राम जी  कई सालों से अयोध्या धाम में प्लास्टिक के तंबू के नीचे विराजमान हैं और प्रभु श्री राम जी के नाम पर अपनी राजनीति को  चमकाने वाले हमारे राजनेता, आज करोड़ों के आलीशान बंगलों के मालिक हो गयें हैं और उन्ही बंगलों में आराम फरमा रहे हैं ।
यह सोचकर बहुत ही तकलीफ हो रही है कि हमारे जगत पिता को त्रिपाल के नीचे पहुंचा कर हमारे राजनेता सुख और ऐश्वर्य की जिंदगी जी रहे हैं । जो जगत के पालक हैं वह तंबू के नीचे हैं और जो सेवक हैं वह मलाई काट रहे हैं, कलियुग का इससे अच्छा उदाहरण और कहां मिलेगा ।
हम  सभी यह जानते हैं कि राम मंदिर बहुत ही संवेदनशील विषय है और यहां पर यह ध्यान देने योग्य बात है कि जो अपने भगवान का नही हुआ, जो अपने जगत पिता का नही हुआ, वो क्या देश की आम जनता का कभी हो पायेगा ???
    सत्य बहुत ही कड़वा होता है, लेकिन जीवन को सुचारु रुप से चलाने के लिये इंसान को सच का सामना करना ही पड़ता है और सच को स्वीकार करना पड़ता है।  राम मंदिर में ताला क्यूं लगाया गया, किसके आदेश पर लगाया गया, इसका कोई स्पष्ट रिकार्ड आज भी मौजूद नही हैं सिवाय इसके कि 1985 में मुंसिफ सदर की अदालत में एक स्थानीय व्यक्ति, उमेश पाडंे द्वारा राम मंदिर का ताला खोलने के लिये मुकदमा दायर किया गया था, इसी के क्रम में 1 फरवरी 1986 को जिला अदालत  द्वारा राम मंदिर का ताला खोलने का आदेश दिया गया था, लेकिन  हमारे देश के राजनेताओं ने अदालत के फैसले को उस समय भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी से जोड़ दिया, जबकि इसमें उनकी कोई भूमिका नही थी, इसके बावजूद आज भी समय समय पर यह सुनने को मिलता है  कि  राम मंदिर का ताला ख्ुालवाने में राजीव गांधी की सक्रिय भूमिका थी, कुल मिलाकर यह कहना गलत नही होगा कि कोई ताला खुलवाने का श्रेय लेकर मतदाताओं को प्रभावित करने का प्रयास करता है, तो कोई बाबरी मस्जिद को गिराने के नाम पर की गई कार सेवा के नाम पर मतदाताओं को प्रभावित करने का प्रयास करता है, कोई कारसेवकों पर किये गये कठोर कार्यवाई के नाम पर मतदाताओं को प्रभावित करने का प्रयास करता है, यह हम सब का दुर्भाग्य है कि हम सब आपस में ही बंट गये और इसका थोड़ा भी एहसास हम सब को नही हआ ।
    आज की तारीख में यह कहने में बिल्कुल भी आश्चर्य नही हो रहा है कि हमारे यहां मंदिर मुददे को हल करने में किसी भी राजनीतिक दल ने सार्थक पहल नही की है, लेकिन हां , मंदिर को मुददा बना कर हर एक राजनीतिक दल ने अपने अपने तरीके से अपना उल्लू सीधा किया है।
    देश की सबसे पुरानी राजनीतिक दल ने आज तक मंदिर मुददे पर कभी खुल कर अपनी बात नही रखी, आखिर क्यूं ??? क्यूंकि उनको लगता है कि अगर वो एक पक्ष का समर्थन करेंगे तो दूसरा पक्ष नाराज हो जायेगा और अगर दूसरे पक्ष का समर्थन करेंगे तो पहला पक्ष नाराज हो जायेगा, इस तरह से मतदाताओं के बीच खुद को उदासीन रख कर वोट बैंक को अपने पक्ष में रखने का प्रयास किया जा रहा है , वहीं एक अन्य राजनीतिक दल  ने राम मंदिर को अपना मुख्य मुददा बनाया और इस तरह से वर्ग विशेष के वोट बैंक को अपनी तरफ प्रभावित करने का प्रयास किया और उसमें वह कुछ हद तक सफल  भी रही वहीं एक अन्य राजनीतिक दल ने अयोध्या में कार सेवकों पर कड़ी कार्यवाई करके समाज के दूसरे पक्ष को यह दिखाने की कोशिश की हम आपकी तरफ हैं, कुल मिलाकर यह कहना बिल्कुल भी गलत नही होगा कि हर एक राजनीतिक दल ने मंदिर मुददे पर राजनीति की और अपने मकसद को पूरा करने में भगवान को भी नही छोड़ा ।
भारतीय राजनीति के इतिहास को अगर देखा जो तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि कुछ चुनिंदा मुददों की वजह से ही हमारे यहां वोटों का रुझान  किसी ना किसी विशेष राजनीतिक दल की तरफ होता है ।
    सत्ता और कुर्सी की चाह में हमारे राजनेता यह भी भूल गये कि वे क्या कर रहे हैं ??? हमारे राजनेताओं ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की चाह में, पूरे समाज को कई टुकड़ों में बांट कर रख दिया है । जहां का समाज टुकड़ों में बंट जाये वहां स्थिरता और विकास की बात करना बेईमानी ही होगा और कुछ नही ।
    भारतीय राजनीति के इतिहास में जाति और धर्म के आधार पर कभी वोट नही मांगा गया, लेकिन अफसोस आज के दौर में वही होने लगा है । पहले भारत देश का हर एक नागरिक हिंदुस्तानी था लेकिन राजनीतिक चाल में फंस कर अब सब आपस में  बंट गये हैं, अब हमारे देश में हिन्दू और मुसलमान रहते हैं , अब मजहब से लोगों की पहचान होने लगी है ।
     अंत में सिर्फ यही कहना चाहूंगा कि, आम जनता ही हमारे  लोकतंत्र का मुख्य आधार है और चुनावी महात्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिये जिस तरह से हमारे राजनेताओं द्वारा आम जनता को आपस में बांटने का प्रयास किया जा रहा है,  इसका बहुत ही विपरीत प्रभाव हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर पड़ेगाा । हमारे राजनेताओं को यह बात अच्छे से  समझ लेनी चाहिये कि देश को तोड़ कर राज कर पाना मुमकिन नही हैं और अगर राजनेता इस बात को स्वीकार नही कर पा रहे हैं, तो हम सभी को अब खुद ही पहल करनी पड़ेगी, जिससे कि आपस में बनी मजहब की दीवार  को मिटा कर फिर हम सभी एक हो सकें ताकि हमारी लोकतंत्र और हमारा देश सुरक्षित हो सकंे ।
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