संघर्षशील और तर्कवादी व्यक्तित्व के धनी थे मूलचंद सोनकर

  • विद्या भूषण रावत 

          मै मूलचंद सोनकर जी के बारे में बहुत नहीं जानता हूँ क्योंकि उनसे मेरा संपर्क ज्यादा नहीं था लेकिन मैंने उनके हस्तक्षेप कुछ पत्र पत्रिकाओं में देखा तो उनकी विचार परिपक्वता तो समझा, फिर एक दो बार हम बनारस में कुछ कार्यक्रमों में मिले. जो अंतिम कार्यक्रम में हम उनसे मिले वह था रैदास जयंती समारोह जिसे काशी हिन्दू विश्विद्यालय के दलित छात्रो ने आयोजित किया था और मै, सोनकर जी और कुछ अन्य लोगो वक्ता के तौर पर आमंत्रित थे. पहली बार मुझे उनके खुले विचारों और मुंह सामने कड़क बोलने की क्षमता का अहसास हुआ और मुझे लगा इस व्यक्ति की वैचारिक प्रतिबधता बहुत मजबूत है. हुआ यूं के रैदास जयंती का पूरा कार्य्रकम उनकी भजन मंडली में तब्दील हो चूका था. पंजाब से आये एक युवा ने दलितों को कहा के उनका एक ही धर्म है जिसका नाम है रविदासिया थर्म और उसी को आगे बढ़ाना है. पंजाब के रविदासियो की ताकत का अहसास भी पूरे कार्यक्रम में था. फिर वह युवा रविदास के चमत्कारों की बात करने लगा. जब सोनकर जी की बारी आये तो उन्होंने सीधे उस युवा से सवाल किया के रैदास जी चमत्कारी भगवान् बनाने की जरुरत नहीं है क्योंकि इससे उनके क्रांतिकारी व्यक्तित्व ख़त्म हो जाएगा. उन्होंने कहा तुम्हारे जैसे युवाओं को चमत्कारों की बात करते अच्चा नहीं लगता.

मूलचंद जी से बात कर ये बात साफ नज़र आती थी के वह अध्यानशील थे और तर्कवादी भी. पूर्वांचल में दलित बहुजन समाज के भिन्न आन्दोलनों से भी वह जुड़े रहे. उनके घर पर मैंने उनसे एक विस्तृत साक्षात्कार किया था जो कम से कम दो ढाई घंटे चला और उन्हें महसूस हुआ के हम कितना कुछ छोड़ देते है बिना परिचर्चा के. मैंने उन्हें हर किस्म के सवाल पूछे, कई बार उन्हें उत्तेजित करने वाले भी लेकिन उनका जवाब हमेशा सधा हुआ था.

आज के दौर के दलित साहित्य के बारे में मैंने उनसे बात की. बहुत से लोग जो बाबा साहेब पर ही सवाल खड़े करने लग गए उनके विषय में भी पुछा तो सोनकर जी की बात साफ़ थी. उन्होंने कहा :

“डाक्टर आंबेडकर के चिंतन के बगैर, समझे बगैर दलित साहित्य की कल्पना संभव हो सकती है लेकिन सार्थक नहीं है. हर विचारक की कोई न कोई सीमा होती है. आंबेडकर भी कोई सीमा रही होगा. हो सकता है उन समस्याओं को उन्होंने नहीं देखा हो लेकिन दलित साहित्य के केंद्र में आंबेडकर है.इसे स्वीकारना होगा.”

हिंदी में दलित साहित्य खूब फल फूल रहा है. नए साहित्यकार आ रहे है लेकिन सोनकर जी ये मानते थे के अधिकांश लोगो ने बाबा साहेब के ओरिजिनल साहित्य को नहीं पढ़ा. जो हिंदी क्षेत्र में समझ उन्हें दिखाई दी वो दूसरो के द्वारा बाबा साहेब के उपर लिखे साहित्य से उपजे ज्ञान से था. उनका कहना था के ये खतरनाक है क्योंकि कल हिंदुत्व और आर एस एस वाले भी बाबा सहब के बारे में लिखेंगे इसलिए उनके हिसाब से अगर हम आंबेडकर को पढेंगे और साहित्य सृजन कर्रेंगे तो इससे कुछ हासिल नहीं होगा अपितु नुक्सान ज्यादा होगा इसलिए बाबा साहेब को उनके मूल साहित्य को पढ़े बिना हम समझ नहीं सकते. अब आर एस एस के लोग बाबा सहब के इस्लाम के विषय में विचारो को छापते है और वो साहित्य भी बिक रहा है. फिर वे कहते है आंबेडकर तो इस्लाम विरोधी थे. अगर हमने बाबा साहेब के पूरे साहित्य को नहीं पढ़ा तो हम इस प्रोपगंडा का शिकार हो सकते है. बाबा साहेब ने तो हिन्दू धर्म की पहेलिया भी लिखा. इसलिए जरुरी है के हमारे पास पूरी जानकारी हो और इसका काम बुद्धिजीवियों को करना होगा.

बाबा साहेब की मुर्तिया दलित अस्मिता का प्रतीक है. वह इस बात को मानते है के जब दलित बाबा साहेब के मुर्तिया बना रहे है तो इसका मतलब यह नहीं के वह उनके साहित्य को ख़त्म कर देना चाहते है लेकिन डूसरी और जब ब्राह्मणवादी लोग बाबा साहेब का महिमामंडन करते है या उनके मंदिर या मुर्तिया बनाते है तो उसका उद्देश्य बाबा साहेब के साहित्य और विचार को ख़त्म कर देने का है इसलिए हमें इस अन्त्तर को समझना होगा.

मूलचंद जी ये मानते थे के “मूर्तियों का अपना प्रभाव है और दलित नायको की मूर्तियों पर यदि किसी योजना से पैसे लगे तो भी कोई बात नहीं’. इस देश में मूर्तियों के जरिये ब्राह्मणवाद ने राज किया इसलिए यदि बहुजन समाज अपने अस्मिता के लिए बाबा साहेब की या अन्य नायको की मुर्तिया लगवाता है तो इसके मतलब बिलकुल भिन्न है. सवाल यह है के दलित बुद्धिजीवी इस मामले में अपनी राय क्यों नहीं रखते, अपने समाज के फोरमो में भी इसकी चर्चा होनी चाहिए. वह कहते है : “ जागरूक समझने वाले लोग चुप  है. अपनी बात रखे. बहुजन नायको की मूर्तियों पर चर्चा करे.  अगर दलित नेता अपना स्मारक बयानेगा तो कभी नहीं चाहेगा के बाबा साहेब का साहित्य ख़त्म होगा लेकिन विरोधी अगर अगर आंबेडकर की मूर्ति बनाएगा तो उनके विचारों को भी आगे बढ़ाएगा.

मूलचंद जी ये मानते थे अभी भी हम ईमानदार बहस में नहीं है. जब बहस करंगे तभी तो विरोध करेंगे. दलित साहित्य राजनितिक पार्टी का प्रोपगंडा साहित्य नहीं हो सकता. ‘’विरोध करने के लिए साहस चाहिए. ये कितने दलितों में है. नामदेव धसल जैसे क्रन्तिकर्री एक्टिविस्ट शिव सैनिक क्यों बन गया. कुछ बाते है जिसका हमारे पास जवाब नहीं है, हम परेशान रहते है. लेकिन इन पर कोई चर्चा नहीं होती.

मूलचंद जी का ये साफ़ मानना था के कांग्रेस और भाजपा एक ही सिक्के के दो पहलु है.

वह कहते है के हमें कांग्रेस के चरित्र को भी देखना पड़ेगा. ‘’ “यदि कांग्रेस को अध्ययन किये होते तो कांग्रेस में वही कुरूतिया थी, वही बदनीयती थे जिसे ज्यादा विकराल रूप में इन्होने ला के रखा है. जब तक कांग्रेस का बर्चस्व नहीं टूटेगा.. तो काम नहीं बनेगा. हमने दुश्मन से दोस्ती करली . कांग्रेस को ख़त्म करने के लिए उन्होंने बसपा के भाजपा से गठबंधन को भी सही ठहराया जो मुझे लगा के वर्तमान राजनीती के हालातो से शायद असहमति वाला है क्योंकि आज के दौर में आर एस एस और हिंदुत्व ने बाकि सभी को ख़त्म कर दिया है और गैर कांग्रेस्स्वाद का नाम लेकर अभी राजनीती करना केवल और केवल संघ को ही मज़बूत करना है. हालाँकि उनकी बातो में बिलकुल सचाई थी. वह बोले : “जो कांग्रेस चुपचाप करती थी ये डंके की चोट पर करते थे. राजनीती स्वार्थ का सौदा है.”

उनका मानना था के यदि देश के बहुजन समाज को ये जानकारी नहीं जायेगी के उनकी आज की हालत का मुख्य कारण ब्राह्मणवादी समाज द्वारा पोषित व्यवस्था है तो हम उसे इकठ्ठा नहीं कर पाएंगे. वह मान्यवर कांशीराम के प्रसंशक थे और ये मानते है के बहुजन समाज को जोड़ने का जो काम मान्यवर कांशीराम साहेब ने किया वैसा कोई दूसरा व्यक्तित्व नहीं है और बहिन मायावती वह नहीं कर सकती. वह अब समाज से बहुत दूर जा चुकी है.

वह मानते थे के अधिकांश दलित साहित्य राजनैतिक चमचागिरी का शिकार हो गयी है और  दलित दस्तक जैसी पत्रकाए इस बात को साबित करती है क्योंकि उसमे मायावती पुराण के अलावा कुछ नहीं है. लेकिन वह यह भी मानते थे के बयान जैसे पत्रिकाओं में आलोचनाये भी आती है. राजनितिक नेताओ को अपनी आलोचना सुन्नी भी पड़ेगी और इसके लिए हर राजनितिक दल का एक साहित्यिक विंग होना चाहिए.

वह यह मानते थे के हमें अपनी जातियों से आगे जाने की जरुरत है लेकिन यह भी कह देना आसान है के हम अपनी जातियों में ज्यादा काम करते है. वे कहते है : एक दलित परोरकार जब निकलता है तो घूम फिर के उसका ज्यादा ध्यान अपनी जाति पर आता है यह स्वाभाविक है. क्योंकि उनकी जाति में भी जरुरतमंदो की कमी नहीं है तो वह कोशिश करता है के पहले उनकी ही सहायता कर दी जाए. ब्राह्मणवादी बर्चास्वदियो के समक्ष ये समस्या नहीं है.

मूलचंद ही ये साफ़ मानते थे के “शासक चाहे वो डेमोक्रेसी का रहा हो या औतोक्रेशी में, उनकी निति रही के  सामान्य जन को शिक्षित न किया जाए. इस मनःस्थिति के कारण सामान्य जन नहीं पढ़ नहीं पाता . यदि पढेंगे नहीं तो रिवोल्ट नहीं कर पाएंगे.

मेरी दृष्टि में मूलचंद्र जी ने भारतीय परम्पराओं और धार्मिक कर्म्कंदो का अध्ययन जायदा विस्तार में किया इसिलए वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे के रैदास रामानंद के शिष्य नहीं हो सकते. आखिर क्यों. रामानंद एक ब्राह्मण थे और वो दक्षिण भारत के, उनका उत्तर भारत के एक दलित क्रन्तिकारी व्यक्तित्व को आगे बढाने में क्यों दिलचस्पी होगी. दूसरी बात, ये ही ब्राह्मणवादी लोग रामानंद को कबीर का गुरु भी मानते है. दोनों के जन्मो के समय भी बहुत बड़ा अंतर है फिर भी हम लोग सवाल नहीं करते. मूलचंद जी कहते थे के यदि पढ़ते तो सवाल करते. वह कहते है “बाबा साहेब चाहते थे हम सवाल खड़े करे. नायको का सम्मान करना कोई बुरी बात नहीं लेकिन नायक केवल इसलिए यदि वह चमत्कार कर सकता था.

एक प्रश्न जो हम सभी कभी नहीं करते वह है बुद्ध के विषय में. मूलचंद जी कहते है : बुद्ध कबीर और रैदास इन तीनो का जन्म पूर्णिमा को पैदा हुए, पूर्णिमा को मरे, और इसी दिन ज्ञान प्राप्त हुआ. हम इस पर उद्वेलित नहीं होते. अगर ऐसा है तो बुरा नहीं है लेकिन क्या इसको सिद्ध करने के कुछ शोध करेंगे या नहीं” .

भारत में धर्म को सीधे सीधे हमारे दिलो दिमाग को नियंत्रण करने वाला कहने वाले मूलचंद जी कहते है “यदि किसी को आप धर्म के फेर में रख दीजिये. तत्काल उसी पल आपने उसे सवालों से मुक्त कर दिया. तो वो सब प्रसाद की तरह ग्रहण कर लिया. हमारे सहियता में बहुत स्कोप है, कहानिया ,उपन्यास, कविताओ का.. हम लोगो को सचेत कर सकते है.” बाबा साहेब के ज्ञान प्राप्ति के सन्देश को वह बखूबी समझते हैं इसलिए बार बार जोर देते है के यदि ‘आप पढेंगे नहीं तो आपके पास सवालों के जवाब नहीं होंगे, आपके पास तर्क नहीं होंगे तो फिर आप गाली पर उतर आते है. आप जिज्ञासु है तो इस लेवल तक पहुच जाइए के पहचान पायें के जो आप पढ़ रहे है, उससे आप सहमत है या नहीं, ये क्वालिटी विकसित करिए तभी आप सवाल कर पाएंगे.”

ये बहुत बड़ी बात है और मैंने अपने वार्तालाप में यह पाया के मूलचंद जी अन्दर न केवल सुनने की क्षमता थी अपितु आपके प्रश्नों का उत्तर वह तर्क के आधार पर ही देने की कोशिश करते थे. वह कहते थे :  “सवालों को बर्दास्त न कर पाना अज्ञानता का प्रतीक है. वो किसी के साथ भी हो सकता है. उसके लिए केवल अम्बेडकरवादी, या दलित ही जिम्मेवार है, ऐसा नहीं है “.

मुझे जो उनके सबसे बड़ी बात पसंद आई वह यह के अच्छे लोगो को आपको प्रोत्साहित करना पड़ेगा, बनाना पड़ेगा. वह कहते है :  “अच्छे लोग कल्टीवेट किये जाते है. बर्बरता करने के लिए पढने की जरुरत नहीं है, नही किसी सभ्यता की “

धर्म के बारे में वह साफ़ थे. वह मानते थे के धर्म की परिभाषा ऐसे की गयी माना इससे डरना जरुरी है. धर्म ऐसा होना चाहिए के लोग डरे. इस बात का विश्लेषण करते हुए वह कहते है :  “इस देश में धर्मभीरु होना गौरव की बात है. धर्मभीरु का मतलब धर्म डराने वाला होना चाहिए. हमने एक ऐसा धर्म बना रखा हो डराके रखता है. शोध तो ये होना चाहिए के आखिर हिंदुस्तान ने ऐसा धर्म क्यों बनाया जहा मेहनत काश को अलग थलग रखा गया”.

जब देश में धर्मभीरु समाज होगा तो लोग सवाल करेंगे ही नहीं और ये स्थिति नेताओं और सत्ताधीशो के लिए तो बेहद महत्वपूर्ण है इसीलिये किसी की भी दिल्च्सस्पी राजनैतिक या धार्मिक नेतृत्व को चुनौती देने की नहीं है.

“कोई भी सरकार अपनी मलाई को छोड़ना नहीं चाहती, चाहे राजनितीक, हो या धार्मिक. सारी लड़ाई बर्चास्व्वाद को बनाये रखने के लिए है. ये दुनिया का कौन सा समाज है जहाँ एक तबका बिना काम किये ऐश कर रहा है और पूज्य भी है. आशाराम के इतने मामलो के बाद भी भक्त बने बैठे है, कोई कमी नहीं आई.”

उन्हें अफ़सोस था के बदलाव चाहने वाले लोग भी कन्विंस नहीं कर पा रहे है क्योंकि उनका चरित्र हज़ार मुन्ही है. फिर वह समझाते है के हमारे समाज में सभी व्यक्ति हज़ार मुखी है फिर कहते है के जब वो समाज जिसके कारण हमारा सामाजिक पतन हुआ, उसके मुखिया, ये स्वीकार न करें के ‘सारी विसंगतियों की जड में हम है, हम माफ़ी मांगते है तो काम नहीं चलेगा.. ब्राह्मणों को खड़े होकर कहना पड़ेगा के हम आपको मुक्त करते है.”

लेकिन ये सवाल अपने आप में यूटोपियन है के ब्राह्मण समाज ब्राह्मणवाद के लिए माफ़ी मांगेगा. मैंने उन्हें उदहारण दिया के कनाडा, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड ने अपने मूलनिवासियो से माफ़ी मागी है आधिकारिक तौर पर तो क्या हमारी संसद भी ऐसा कर सकती है तो मूलचंद जी बोले के नहीं, हमारी  संसद कभी माफ़ी नहीं मांगेगी क्योंकि इसमें सबसे ताकतवर तो वही लोग है जिन्होंने हमारी हालत ऐसे की है. हमारी दुर्गति के लिए जिम्मेवार क्यों अपनी करनी के लिए माफ़ी मांगेंगे.”

वो कहते है के अब ज़माने लड़ गए के पार्टिया वाल राइटिंग करें और बाबा साहेब की २२ प्रतिज्ञाए लिखे.

८५ + १५ वाला नारा बंद हो गया.

मैंने उनसे पुछा के आगे का क्या प्रोग्राम हो. क्या अजेंडा हो.

“विभिन्न जातियों को एक करने की ताकत केवल कांशीराम के कैलिबर का व्यक्ति कर सकता है. मायावती बहुत दूर जा चुकी है. इस दौर में हमारी जिम्मेवारी, भाजपा और कांग्रेस में एक अंतर है. भाजपा सामाजिक विघटन में यकीं करती है. नीतियों में कोई अंतर नहीं है. जो हमारे यहाँ अनेको राष्ट्रीयताओ की अस्मिताओ को बचाने के लिए हमें कोम्प्रोमिसेस करने पड़ेंगे, लेकिन राजनीती में वो करने पड़ते है.”

मूलचंद से पूरी बातचीत के बाद मैंने पाया के उनके अन्दर आज की परिस्थिति को लेकर निराशा भी थी. वह बसपा की वर्तमान हालत के लिए मायावती जी को जिम्मेवार ठहरा रहे थे लेकिन ये मानते थे आज मान्यवर कांशीराम जैसे व्यक्तित्व की बेहद आवश्यकता है जो विभिन्न जातियों को एक कर सके, उनमे नेतृत्व का भाव पैदा कर सके और बसपा जैसे पार्टी को सही मायनों में बहुजन समाज की पार्टी बना सके.

घनघोर निराशाओं के बावजूद, मूलचंद जी में कांशीराम जी के मिशन की सफलता के प्रति गहरा विश्वास था. वह मानते थे के बाबा साहेब आंबेडकर जो राजनैतिक तौर पर नहीं कर पाए वह मान्यवर कांशीराम जी ने कर दिखाया और इस सन्दर्भ में हम सब लोगो के मतभेद हो सकते है, लेकिन मैंने ये पाया के मूलचंद जी को मान्यवर कांशीराम साहेब के मिशन पर ज्यादा भरोषा था लेकिन ये त्राश्दी है के आज के दौर की बसपा में उन जैसे साहित्यकारों और कर्मकारो के लिए कोई स्थान नहीं था. उन्होंने तो यहाँ तक कहा के बसपा जैसे पार्टियों का भी बौधिक मंच होना चाहिए जो नेतत्व को समय समय पर चेता सके लेकिन सवाल वही आता के क्या आज के बुद्धिजीवी इस स्थिति में है के वे ये काम कर सके या इससे बड़ी बात के क्या जिन्हें हम चाहते है, वे क्या ऐसा चाहते है के बुद्धिजीवियों की बातो को सुनो.

मूलचंद सोनकर जी बेबाकियो की आज भी जरुरत है. उनके जैसा जनता से जुडा हुआ मिशनरी साहित्यकार आज के दौर में मिलना मुश्किल है जो समय समय पर नेतृत्व को भी चेता सके और समाज को भी बता सके के उनके रास्ते कहा भटक रहे है.

  • विद्या भूषण रावत, एक लेखक और सामाजिक कार्यकर्त्ता है. उन्होंने देश विदेश में रहने वाले अम्बेडकरी और मानवाधिकारवादी लेखको, कार्यकर्ताओ से विस्तृत बातचीत कर अम्बेडकरी आन्दोलन के महत्वपूर्ण बिन्दुओ को डॉक्यूमेंट भी किया है. ये सभी बातचीत यू ट्यूब पर उनके चैनल लोकायत पर उपलब्ध है. उन्होंने २० से अधिक पुस्तके लिखी है. संपर्क : vbrawat@gmail.com
  • मूलचंद सोनकर जी बातचीत का विडियो : https://www.youtube.com/watch?v=vzLMm0UiYEM

 

Previous articleसामाजिक गुलामी से मुक्ति का एक ही रास्ता है कि दलित-पिछड़ा इकट्ठा हों……..
Next articleDrama in SC, ‘can’t continue’, CJI snaps at final Ayodhya hearing