शाम ए गम की कसम, आज ग़मगीन है हम… दिलीप कुमार को श्रधांजलि

-विद्या भूषण रावत

(समाज वीकली)- दिलीप कुमार हिनुद्स्तानी सिनेमा का सबसे बड़ा नाम जिसे देख कर हम बड़े हुए और सिनेमा के रुपहले परदे पर जो नायको का नायक था. दिलीप कुमार उस युग का प्रतीक भी है जिसकी नीव आज़ादी के आन्दोलन के दौरान पडी और जिसे अपनी वैचारिक निष्ठा से प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने सींचा. किसी भी देश काल का सिनेमा उस देश की समकालीन राजनैतिक परिद्रश्य से प्रभावित होता है. भारत के लिए ये एक बड़ी बात थी के देश का नेतृत्व एक ऐसे व्यक्ति के हाथो में था जो वैज्ञानिक चिंतन, मानववाद, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक था. वो दौर था जब हिन्दुस्तानी सिनेमा हमारे रास्ट्रीय मूल्यों से प्रेरणा लेकर लोगो के दिलो में अपनी जगह बना रहा था. ये वो दौर है जब दिलीप कुमार के साथ राज कपूर और देव आनंद ने सिनेमा के रुपहले परदे पर देश को एकता और सकारात्मकता का सन्देश देना शुरू किया. शैलेन्द्र, साहिर और मजरूह ने अपनी लेखनी से एक से बढ़ कर एक गीत लिख डाले जो साहित्य और कविता के किसाब से भी उत्कृष्ट दर्जे का माना जा सकता है. ये वो दौर था जब तलत महमूद, मुकेश, मोहम्मद रफ़ी, हेमंत कुमार, गीता दत्त, नूरजहां, लता मंगेशकर, मन्ना डे, आशा भोंसले और किशोरकुमार की कर्णप्रिय आवाज ने लोगो को अपना दीवाना बना दिया था. नौशाद, शंकर जयकिशन, गुलाम मोहम्मद, सी रामचंद्र, सचिन देव बर्मन, ओ पी नैय्यर, मदन मोहन आदि के संगीत ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी धूम मचा दी थी.

धर्म के नाम पर पाकिस्तान बनने के बावजूद भी भारतीय राजनैतिक नेतृत्व ने भारत में पनप रही घृणा का मुकाबला वैचारिक तौर पर ही किया और इस दौर में सिनेमा ने प्रधानमंत्री नेहरु के उस धर्मनिरपेक्ष विचार को आत्मसात कर लिया इसलिए रोमांस में बदलाव की झलक दिखाई देती है. बम्बई सिनेमा की नगरी थी और आज इसे बॉलीवुड कहते है और कुछ लोग इसे ‘हिंदी’ सिनेमा भी कहते है लेकिन जिनलोगो ने इस सिनेमा की नीव का पत्थर रखा और इसे आज घर घर तक पहुंचाया, इसकी सबसे बेहतरीन क्लासिकल फिल्मे दी उनमे से अधिकाँश की मातृभाषा हिंदी नहीं थी. दिलीप कुमार ११ दिसंबर १९२२, देवानंद, २६ सितम्बर १९२३ और राज कपूर १४ दिसंबर १९२४ की पैदाइश है और सभी की पैत्रिक गांव आज के पाकिस्तान में है. दिलीप कुमार और राज कपूर की दोस्ती सिनेमा में व्यक्तिगत रिश्तो की महत्ता का सबसे बड़ा उदाहरण है. आम तौर पर राज कपूर और दिलीप कुमार को उस दौर का प्रतिद्वंदी माना जाता था. एक रोमांस का बादशाह था तो दूसरा दर्द का. देवानंद की छवि इन दोनों से भिन्न थी क्योंकि उन्होंने अपनी छवि को शहरी ही बना के रखा. इन तीनो महान कलाकारों की प्रथम भाषा भी हिंदी नहीं थी. दिलीप कुमार और राज कपूर के परिवार पेशावर के प्रख्यात किस्सा खिवानी बाजार के निवासी थे जहा पर २३ अप्रेल १९३० को देश के जाबांज वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली और गढ़वाल राइफल्स के ७२ जवानो ने खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में खुदाई खिद्म्गर आन्दोलन के लोगो पर गोली चलने के ब्रिटिश हुकूमत के आदेश को मानने से इंकार कर दिया. उसी पेशावर की क्रांतिकारी धरती से कपूर परिवार ओर खान परिवार बम्बई आ चुका था. राज कपूर के पिता पृथ्वीराज कपूर थिएटर में काम करते थे और दिलीप कुमार के पिटा फलो का ब्यापार करते थे. राज कपूर और दिलीप कुमार दोनों बम्बई के खालसा कालेज के छात्र रहे और दोनों की दोस्ती बेहद मजबूत थी.

१९४४ में युसूफ खान को प्रक्यात नायिका देविका रानी ने जब ज्वार भाटा फिल्म के लिए ब्रेक दिया तो उन्हें दो नाम सुझाए गए : एक नाम था जहाँगीर और दूसरा था दिलीप कुमार. युसूफ खान को दिलीप कुमार नाम ज्यादा पसंद आया और उन्होंने सिनेमा के लिए इसे अपना लिया. धीरे धीरे उनकी शक्शियत ऐसे बनी के सारी दुनिया उन्हें दिलीप कुमार के नाम से ही जाने लगी. लेकिन कई बार लोग इन बातो की बारीकी नहीं समझते और अपनी अपनी सुविधाओं के हिसाब से लोगो का मूल्याङ्कन करते है. बहुत से लोग ये कहते है उस दौर में किसी भी फिल्म स्टार की सफलता के लिए ‘हिन्दू’ नाम होना जरुरी था इसलिए बहुत से मुस्लिम कलाकारों ने हिन्दू नाम अपनाया और इनमे दिलीप कुमार, मधुबाला और मीना कुमारी का नाम बहुत जोर शोर से लिया जाता है. लोग उदहारण देके कहते है आज सलमान खान, शाहरुख और आमीर को अपना नाम बदलने की जरुरत नहीं है लेकिन ये सब मात्र भ्रान्तिया और कपोल कल्पनाये है. आखिर नर्गिस, वहीदा रहमान, नौशाद, मोहम्मद रफ़ी, खुर्शीद, सुरैय्या, नूरजहा, महबूब खान, कमाल अमरोही, साहिर लुधियानवी आदि को अपना नाम बदलने की जरुरत पड़ती. दिलीप साहेब ने इन बातो को पहले ही खारिज कर दिया था.

दिलीप कुमार को देखना मतलब कला को देखना था. उनकी डायलोग डिलीवरी, उनके हाव भाव , शब्दों का उच्चारण सभी कमाल का था. इसलिए उनके यदि कला का साहित्यकार कहा जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. क्योंकि सिनेमा जिस स्वर्णिम दौर में वह थे उसमे सभी ने अपनी कलात्मक स्वायतत्ता को बचा के रखा और नतीजा हुआ के देश को बेहतरीन सिनेमा मिला. जब राज कपूर ने आवारा, श्री चारसौ बीस, आह, आग, जिस देश में गंगा बहती है बनाई तो दिलीप साहेब ने आन, मेला, नयादौर, मधुमति, तराना, आजाद, यहूदी, लीडर, गोपी, बैराग, आदि फिल्मे दी. कोई भी फिल्म अज भी उतनी ही जवा है जितनी उस दौर में थी. जहा रात की तन्हाई में तलत महमूद की मखमली आवाज में दिलीप कुमार को ‘ए मेरे दिल कही और चल हो या शाम ए गम की कसम आज ग़मगीन है हम, सीने में सुलगते है अरमान, आँखों में उदासी छाई है, ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल जहा कोई न हो, गाते सुनते है तो लगता है वो हमारे दिल की बात कह रहे है. एक दौर था उन्हें ‘ट्रेजेडी किंग’ का टाइटल दे दिया गया और उनकी फिल्मो को देखकर बाहर आते समय लोगो की आँखों में आंसू और सिसकिया ही होती थी. इस प्रकार के गंभीर रोल करते करते उन्होंने अपने को नए सांचे में भी ढाला और वो था नेहरूवियन भारत का सपना. नया दौर( १९५७) ने उनके और हम सबको एक नयी दिशा दे दी. वो उम्मीद की किरण जो आज भी ज़िंदा है. साहिर ने कलम का कमाल किया तो ओई पी नैयर ने अपने संगीत से ऐसा समा बंधा के आज भी नया दौर और उसके गीत हम सबके के दिलो की धड़कन हैं और फिल्म का विषय तो ऐसा के ‘निजीकरण’ ओर मशीनीकरण के खतरों को सबसे बेहतरीन तरीके से यही फिल्म समझा सकती है. जिन्होंने दिलीप साहब का ‘दर्द’ देखा, नया दौर में एक बिलकुल नया रूप देखा. आज भी शादी विवाह में जो गीत सबसे ज्यादा बजता है वो है ‘ ये देश है वीर जवानो का, अलबेलो का मस्तानो का’…. मै समझता हूँ के कोई भी देशभक्ति गीत इतना पोपुलर नहीं हुआ के वो शादियों में सबसे ज्यादा बजे. इस फ़िल्म में दिलीप कुमार वैजयंतीमाला पर फिल्माया ‘ मांग के साथ तुम्हारा मैंने मांग लिया संसार’ और ‘उड़े जब जब जुल्फे तेरी’ आज भी किसी भी नए गाने से ज्यादा रोमांटिक और जवान है. आज जिस प्रकार से हमारे अधिकारों पर अतिक्रमण है उसके विरुद्ध कैसे संघर्ष करे और जीते ये ‘साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा, मिल कर बोझ उठाना’ से समझा जा सकता. एक फ्रेम में दिलीप कुमार और वैजयन्तीमाला को देखना बेहद सुखद अनुभूति है.

नया दौर के बाद आई ‘मधुमति’ ने भी अपने झंडे गाड़े. सलिल चौधरी के कर्णप्रिय संगीत और मुकेश की बेहद खूबसूरत आवाज ने दिलीप कुमार वैजयन्तीमाला की जोड़ी को फिर सिरमाथे लिया. ‘सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं’ या दिल तड़प तड़प के कह रहा है आ भी जा, आजा रे परदेशी, मै तो कब से खडी इस पार ने इस फिल्म की ख़ूबसूरती को चार चाँद लगा दिए थे.

दरअसल वो दौर हिन्दुस्तानी सिनेमा का स्वर्णिम युग ऐसे ही नहीं बन गया था. हर एक लीड स्टार की पूरी एक टीम थी जिसके साथ मिलकर पूरी फिल्म को ‘बुना’ जाता था. हर एक किरदार महत्वपूर्ण होता था और फिल्म में कहानीकार, गीतकार और संगीतकार की बेहद अहम् भूमिका होती थी. राजकपूर शैलेन्द्र, शंकर जयकिशन, लता मंगेशकर, ख्वाजा अहमद अब्बास, मुकेश एक बड़ी टीम थी और राज कपूर अभी भी अपने इन ‘संगी साथियो’ के बिना कोई भी बात नहीं रखते थे. हालांकि दिलीप कुमार इस मामले में अपने मित्र राजकपूर की तरह नहीं थे और उन्होंने अपने को केवल अभिनय तक सीमित रखा था लेकिन उनकी फिल्मो में नौशाद, मोहम्मद रफ़ी, शकील बदायुनी, साहिर लुधियानवी भी लगभग मज़बूत हिससा थे लेकिन दिलीप साहेब के लिए केवल रफ़ी साहब ने खूबसूरत गाने दिए ऐसा नहीं है. वर्षो तक तलत महमूद ने उनकी ट्रेजेडी किंग की छवि को मज़बूत किया तो मुखेस ने फ्निल्म यहूदी में ‘ ये मेरा दीवानापन है या, मेला में गाये जा गीत मिलन के, तू अपनी लगन के, सजन घर जाना है गाकर उसे और मज़बूत किया. रफ़ी साहेब की आवाज तो ऐसा लगता है दिलीप साहेब के लिए बनी थी. ‘आज पुरानी राहो से कोई मुझे आवाज न दे’.. पूरी फिल्म देखकर और दिलीप कुमार को परदे पर गाता देखकर आपका कलेजा मुंह पर आ जाता है. मुझे नहीं लगता के इतना इंटेंस सीन करने के क्षमता अभी किसी में दिखाई देती है.

पहले सिनेमा एक पैकेज था जिसमे सबके रोल थे और इसलिए कभी स्टोरी तो कभी संगीत फिल्मो को हिट बना देते थे और सभी कलाकार अपनी भूमिकाओं में पूरी तरह से ढल जाते थे. एक एक फिल्मे बनाने में सालो लगते थे लेकिन जो अंतिम प्रोडक्ट आता था वो अविश्मर्नीयं होता था. मुग़ले आज़म में दिलीप साहेब की भूमिका लाजवाब थी लेकिन क्या अकबर के रोल में पृथ्वीराज कपूर कही कम नज़र आये. मधुबाला ने ‘प्यार किया तो डरना क्या’ और मुहोब्बत की झूठी कहानी पे रोये में जो अभिनय किया वो बेहतरीन था. नौशाद के संगीत, लता मंगेशकर की बेहद हृदयस्पर्शी आवाज ने इस फिल्म को एक सम्पूर्ण फिल्म बनाया. निर्माता के आसिफ ने पैसो की चिंता किये बिना बड़े बड़े सेट तैयार किये और पूरी फिल्म को बनने में तीन वर्ष के करीब लगे. आज किसी के पास इतना समय नहीं है के इतना समय लगाए. नौशाद ने एक बार बताया के प्यार किया तो डरना क्या गाने को कंपोज़ करने में उन्हें पूरी रात लग गयी. आज एक गायक एक दिन में कई गाने का देते है. किसी भी पुरानी क्लासिकल फिल्म को देख लीजिये तो आपको पूरा टीम वर्क दिखाई देता है और हर एक किरदार की अपनी अहमियत है.

आज ‘क्षेत्रीय’ सिनेमा का दौर भी है. उत्तर प्रदेश बिहार की अवधी- भोजपुरी फिल्मो की खूब कमाई हो रही है, गाने भी अश्लील और भोंडे आ रहे है लेकिन भारत के दो महान कलाकारों के जो सबसे अच्छे दोस्त भी थे, की दो फिल्मे हर एक कला प्रेमी को देखनी चाहिए तो पता चलेगा के वैसे फिल्मे और गीत क्यों नहीं लिखे जाते. दिलीप कुमार वैजयंतीमाला की गंगा जमुना १९६१ में आई और राज कपूर वहीदा रहमान की फिल्म तीसरी कसम १९६६ में आई. दोनों फिल्म में उत्तर प्रदेश-बिहार के ग्रामीण पृष्ठभूमि बेहद संजीदा तरीके से दिखाई गयी है. मोहम्मद रफ़ी के ‘नैन लड़ जाई है, मनवा माँ कसक होइबे करी पर दिलीप कुमार का डांस आपको बिलकुल पूर्वांचल की उस दुनिया में ले चलता है जहा मिठास है, मेहनत है और प्यार भी है. दूसरी और मुकेश के गाये गीत ‘सजनवा बैरी हो गए हमार, चिठिया हो तो हर कोई बांचे, करम न बांचे कोई, पर राज कपूर जिस प्रकार से गा रहे है वो हमें बिहार के उन इलाको में ले चलते है जो हम फणीश्वर नाथ रेणु की कहानियों में पढ़ते है. हालांकि तीसरी कसम रेणु की कहानी पर आधारित शैलेन्द्र की फिल्म थी जिसे जनता न पसंद नहीं किया हालांकि आलोचकों की पसंद बनी रही और आज भी एक क्लासिक फिल्म मानी जाती है. सवाल ये है के ऐसी फिल्मो के लिए आपको न केवल दिलीप कुमार या राज कपूर चाहिए अपितु रेणु, शैलेन्द्र, रफ़ी, मुकेश, नौशाद , शंकर जय किशन जैसे दिल से काम करने वाले लोग भी चाहिए.

दिलीप कुमार आज के दौर में उस स्वर्णिम युग से हमारा साक्षात्कार कराने वाले अंतिम अभिनेता है. उनके प्यारे दोस्त राज कपूर २ जून १९८८ को और देव आनंद ३ सितम्बर २०११ को दिवंगत हो चुके है. शैलेन्द्र, साहिर, नौशाद, शंकर जयकिशन भी नहीं है. दिलीप साहब उस काल की महानतम तिकड़ी के अंतिम लिंक थे.

आज दिलीप साहेब की मौत के बाद भारतीय मीडिया के पास वैसे लोग नहीं थे जो उनकी उप्लाभ्दियो और विचारधारा पर ईमानदारी से चर्चा कर सके. मीडिया ने उनके जाने की खबर से ज्यादा ताबज्जोह मोदी के मंत्री परिषद् के फेर बदल को दिया. इससे बड़ी शर्मनाक बात क्या हो सकती है जब आप एक ऐसे अदाकार की मौत पर भी चार ढंग के आलोचकों या कलाकारो को लेकर बात नहीं कर सकते. मुझे इसमें भी साजिश नज़र आती है और वो ये के दिलीप कुमार पर चर्चा के बहाने पर आपको हमारी गंगा जमुनी संस्कृति पर चर्चा करनी पड़ेगी. उनको फिल्मो और संगीत पर बात करेंगे तो के आसिफ, महबूब खान, नौशाद, साहिर, शकील बदायुनी और मोहम्मद रफ़ी का जिक्र भी आयेगा. उनकी विचारधारा को पढेंगे तो नेहरु को याद करना पडेगा और समाजवाद का जिक्र करना पडेगा. दिलीप कुमार भारतीया सामाजिक परिवेश को समझते थे इसलिए डाक्टर आंबेडकर को भी जानते थे. महाराष्ट्र के भीतर उन्होंने ओ बी सी यानी पसमांदा मुसलमानों के सवाल पर बड़ी बड़े सभाओं में हिस्सा लिया और सरकार से उनके लिए आरक्षण व्यवस्था की मांग की. दिलीप कुमार पर चर्चा के बहाने पर उर्दू और मुस्लिम समुदाय का भारतीया सिनेमा में योगदान पर चर्चा करनी पड़ती जो राष्ट्रवाद का सर्टिफिकेट बांटने वालो के लिए पचाना मुश्किल था. जो अपने धर्म और संस्कृति की बात करते हैं उन्हें भी ‘मधुबन में राधिका नाचे रे’, सुख के सब साथी दुःख में ना कोय’ , आना है तो आरह में कुछ देर नहीं है या राम चन्द्र कह गए सिया से ‘ में दिलीप कुमार ने किस प्रकार का सधा हुआ अभिनय किया है के कोई उनके नज़दीक में नहीं फटक सकता.

दिलीप कुमार का अभिनय और व्यक्तित्व हमें ये बात भी याद दिलाएगा के कला तभी खिलती है जब वह समाज की सड़ी गली परम्पराओं को चुनौती दे सके, जब वह विचार में देश काल की सीमाओं को पार करे और जब उसका लक्ष्य बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय हो. दिलीप कुमार के अपने समकालीन कलाकारों और उनकी वैचारिक निष्ठाओ को छोड़ दे बाद के दौर में वैचारिक निष्ठा का वो दौर ख़त्म हो गया फिर भी गुरुदत्त, संजीव कुमार, बलराज साहनी , नर्गिस दत्त, सुनील दत्त, मीना कुमारी, नूतन, वहीदा रहमान जैसे कलाकार अपनी कला और सामजिक संदेशो के चलते हमेशा ज़िंदा रहेंगे. दिलीप कुमार को ईमानदारी से याद करने का मतलब होगा आधुनिक भारत के धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी पृष्ठभूमि को भी याद करना जिसकी नीव डाक्टर बाबा साहेब आंबेडकर और जवाहर लाल नेहरु ने रखी जहा सबके लिए आगे बढ़ने के अवसर हों और किसी को भी उसकी धार्मिक या जातीय पहचान के आधार पर किसी भी प्रकार के अधिकारों से वंचित न किया जाये.

दिलीप साहेब की महान विरासत को हमारा सलाम .

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