रसरंग में विश्व सिनेमा: संकटों के नरक में स्वर्ग की उम्मीद

(समाज वीकली)

कुमार अम्बुज#
फ़िल्म ‘इट मस्ट बी हैवन’ का एक दृश्य।

दुर्दिनों में लगता है कि दुनिया में जो कुछ घट रहा है, आप उसके दर्शक रह गए हैं। और जो ख़ुद के ऊपर से गुज़र रहा है, उसके भी आप महज़ दर्शक हैं। अपना शहर या देश बदलने से इसका कुछ नहीं होनेवाला। सभी जगहें एक सा नरक पेश करती हैं। तरीके और परिस्थितियां अलग हैं, लेकिन नरक सब जगह फैल गया है। चिकित्सा के अभाव में किसी नासूर की तरह। सब तरफ एक-सा अज़ीबो-ग़रीब जीवन होता जा रहा है, अमानवीय और अवाक् करनेवाला।

तब क्या किया जा सकता है। अन्य कलाओं की तरह गंभीर सिनेमा भी इस बारे में कलात्मक ऊंचाई पर जाकर सोच सकता है। दर्शक को प्रेरित कर सकता है कि वह भी कुछ विचार करे। संसार में इतने तरीकों से फ़िल्में बन रही हैं कि अचरज और ख़ुशी है। वे यथार्थ को नाना प्रकार से प्रकाशित कर रही हैं। लगातार उस लोकतांत्रिकता और स्वतंत्रता की खोज कर रही हैं जिसकी कमी तमाम समाजों, देशों में होती जा रही है। इसलिए इनका संबोधन पूरे भूमंडल के लिए है। यही किसी कला का सच्चा ध्येय और उपलब्धि हो सकती है।

फ़िल्म निदेशक, अभिनेता एलिया सुलेमान का जन्म इजराइल में हुआ लेकिन वे फिलिस्तीनी हैं। वे अपनी फ़िल्म ‘इट मस्ट बी हैवन’ – 2019, के ज़रिये उपरोक्त समस्याओं के सामने काॅमिकल अंदाज़ में पेश होते हैं। एक फिलिस्तीनी रहवासी को चित्रित करते हुए बताना चाहते हैं कि पड़ोसी भी आपको चैन से नहीं रहने देगा क्योंकि वह ख़ुद बेचैन है और अतिक्रमण को उपलब्धि मानता है। हर कोई निर्बल के एकाकीपन और असहायता को समझता है। वह आपकी संपत्ति, आपके जीवनाधिकार सब कुछ आंखों के ऐन सामने छीनता है और अहसान जताता है मानो सहायता कर रहा है। यह वर्तमान जीवन की संकटपूर्ण रोज़मर्रा गतिविधियों का कोलाॅज है कि आपदा में कोई भी शांतिपूर्ण जीवन नहीं बिता सकता। अनेक प्रतीक-दृश्यों से निर्मित सांकेतिकता इस फ़िल्म का गुण है। यह बहुअर्थी है। दर्शक इसे योग्यतानुसार अपने ढंग से समझ सकते हैं।

पूंजीवादी सभ्यता की घबराहट में एक दिन हर जगह, हर आदमी के पास बंदूक मिलती है। सुरक्षा की यह हास्यास्पद आश्वस्ति है। फिल्म में दिखते टैंक, पुलिस, फ़ासिस्ट परेड और अपराधीकरण के इशारे महज़ रूपक नहीं हैं, वे इस शताब्दी के अवयव हैं। मनुष्य की सामाजिकता, कल्पनाएं, किस्से और सहजता एक गुज़री हुई बात है। आप एक हतप्रभ, औचक और किंकर्तव्यविमूढ़ नागरिक हैं और मुसीबतों, आशंकाओं के बीच किसी एक जगह या एक शहर से मुक्त हैं। या कहें कि हर जगह एक आदर्श अजनबी। उतने ही जितने कि अपने देश में भी हो सकते हैं।

जिसके पास जितनी शक्ति है, वह उतना ही आततायी है। असीम शक्ति के कारण सत्ता-संरचनाएं यदि निरंकुश होना चाहें तो उनके लिए यह बहुत आसान है। तब नगर, गलियां, बाज़ार, शहर, वैभव और प्रांगण अकेले हो सकते हैं। उनका सुनसान मनुष्य जीवन में भर जाता है या उनका कोलाहल मन के भीतर पसरता चला जाता है। जबकि सभ्यता की हज़ारों साल लंबी सामाजिक यात्रा के बाद इस धरती को स्वर्ग होना चाहिए था। लेकिन समाज और राजनीति का नैतिक पतन नागरिकों को रोज़मर्रा के अनेक अघोषित, अनावश्यक युद्धों में शामिल कर देता है। ऐसी फ़िल्म बनाने के लिए संकीर्णता नहीं, वैश्विक दृष्टि की संपन्नता चाहिए। देश विशेष की नहीं, पूरे संसार की नागरिकता चाहिए। नवोन्मेष के प्रति आग्रह, दीवानगी चाहिए। व्यावसायिकता के ख़िलाफ़ सर्जनात्मक दुस्साहस चाहिए। कलेजा नहीं चाहिए, दिमाग़ चाहिए कि भूगोल में यह ऐसा ग्लोबल समय है जिसमें ताकत, क्रोध और ईर्ष्या कहीं अधिक निर्णायक दौर में है। मनुष्य की तरह जीवित रहने के लिए कोई जगह शेष नहीं। जैसे संसार में सारी जगहें एक-सी हैंः शांति और ख़ुशी से न रहने लायक।

आपके उठने-बैठने-सोने तक की जगह सुरक्षित नहीं। कमज़ोर और अपंग के लिए भी नहीं। ग़रीबों, असहायों के प्रति एक-सी घृणा है या सरकारी दया है या आत्मलुभावन, आत्मतोषी कृपा है। खोखली उत्सवधर्मिता इस तरह है कि आतंक है। यांत्रिक ख़ुशियां हैं जिनसे पैदा मनहूसियत वातावरण में धुंध की तरह फैल गई है। और आदमी के मनोकाश में भी। एक फूल, एक नींबू, एक वृक्ष और एक पक्षी के लिए भी आदमी का प्रेम हास्यास्पद और दुखित होने के लिए अभिशप्त है। आरंभिक दृश्य बताता है कि जब चीजें़ प्रार्थना से ठीक नहीं होतीं, तब इंसानी निर्णय और सक्रियता सब कुछ ठीक कर सकती है। सार्वजनिक बंद द्वार नहीं खुलते तो तोड़कर खोले जा सकते हैं। यह फ़िल्म याद दिला सकती है कि चारों तरफ़ असाधारण चौकसी है। अनुपयोगी चीज़ों की भरमार है और इंसान की अवहेलना है। एक सामान्य आदमी का कोई वास्तविक मूल्य नहीं। इस ‘सूचकांक समय’ में ग़रीब लोग किसी बरबाद और अनुपस्थित कंपनी के लुढ़के हुए शेयर हैं। वे विशाल जगहों में भी एक कोने में सिमटे हैं। ऐसी उपेक्षा के अनेक दृश्य, करुण हास्य से लथपथ इस फिल्म में बिखरे हैं। सभ्यता की हिंसा, नग्नता और विडंबना को आप घूर नहीं सकते, यह असभ्यता होगी। उस पर विस्मय या सवाल करोगे तो आफ़त होगी।

आपकी तरह किसी दूसरी मुश्किल में फंसा एक आदमी भिक्षा पाने की आशा में अपना संगीत सुना रहा है लेकिन स्थिति यह बन गई है कि आप उसे भिक्षा नहीं देंगे तो लगेगा मानो वह आपको अपना संगीत भीख में देकर चला गया। आपकी स्थिति हर हाल में भिखारी की ही थी, अब प्रमाणित है। जल-नभ-थल में केवल वर्चस्ववादी लोग हैं, उन्होंने सब कुछ हड़प लिया है। एक मनुष्य की परवाह समाप्त है। रोशनियों में उत्साह नहीं, प्रदर्शन है। जैसे वे भी शक्ति संरचना का रोशन हिस्सा हैं। सारे नए फ़ैशन, नए अवसाद छिपाने के तरीके हैं।

अगर कोई फिलिस्तीनी या किसी संघर्षरत देश का नागरिक है तो कहीं भी जाएगा, वह एक शरणार्थी होगा। उसकी जिजीविषा पर लोग विस्मय कर सकते हैं, लेकिन देश वापस नहीं दे सकते। निराशा का चरम है कि उसे आखिर अपना देश मिलेगा या नहीं, यह सवाल ज्योतिषियों से पूछना पड़ सकता है। फ़िल्म सचेत करती है कि पीड़ित को अपना गुस्सा, असहमति और लड़ाई याद रखना है, भूल नहीं जाना है। ग़म ग़लत नहीं करना है, ग़म सही करना है। कि संघर्ष और सपने फलित होते हैं लेकिन ज़रूरी नहीं कि एक जीवनकाल में हो सकें।

यह एक एब्सट्रैक्ट आर्ट भी है। कई रंग, छवियां और एकाधिक मायने। और ऐसी दुनिया से आगाह है, जहां आपकी इच्छाओं को बख़्श दिया जाएगा लेकिन आपको नष्ट कर दिया जाएगा। इसका उलट भी संभव है। मगर पलायन करके नरक से नहीं बचा जा सकता। समस्या से दूर भागने से समस्या नहीं भागती, बल्कि वह पीछा कर सकती है। इसलिए यह आपके महज़ दर्शक होने के ख़िलाफ़ है। अपनी जगहों पर रहते हुए, परिस्थितियों को बदलकर उस स्वर्ग की रचना की जा सकती है जिसकी आशा में इस फ़िल्म का नाम है- ‘यह स्वर्ग होना चाहिए।’

– कुमार अम्बुज, ख्यात कवि, कथाकार और विश्व सिनेमा के अध्येता

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