मौत हमें कुछ सीख दे रही है…..

अभय कुमार

(समाज वीकली)

नींद से जगने के बाद अमूमन मैं मोबाइल देखता हूं। आज भी वैसा ही किया। मगर मोबाइल ने फिर बड़ी ही बुरी खबर दी। एक मित्र जो मेरे पड़ोस में ही रहते थे, जेएनयू से पढ़ाई की थी और एक कॉलेज में पढ़ा भी रहे थे, अचानक से कोरोना के शिकार हो गए।

शिकारी कोरोना को कहा जाय या फिर चुनावबाज “सिस्टम” को, यह आप बेहतर जानते हैं। कल तक उनके साथ जेएनयू के गेट पर चाय पीता था, वह हमें छोड़ कर चले गए। न वह किसी तरह से कमजोर थे, न किसी बीमारी में मुबतला। शरीर भरा हुआ, कद लम्बा और सावली सी सूरत पर हमेशा मीठी मुस्कान। उनको जोर से बात करते कभी नहीं सुना। अगर एख्तेलाफ भी दर्ज करना होता तो मुस्कुराकर के और नर्म आवाज में करते।

मुझे याद है कुछ महीने पहले, उत्तर प्रदेश ने लेक्चरर का एक फॉर्म निकला था। फार्म में दी गई हिंदी के “इंस्ट्रक्शन” इतना कठिन था कि मेरे जैसा हिंदी मीडियम का छात्र भी हक्का बक्का रह गया था। तब रमेश जी ने मदद की। उन्होंने ने सड़क पर बैठे और चाय पीते ही मेरी मदद की और फार्म पूरा हो गया था।

रमेश जी के बारे में यह जानकारी हासिल हुई है कि वह कुछ दिनों से बुखार से परेशान थे। बुखार उतर कर फिर चढ़ जाया करता था। उन्होंने ने आखिर में किसी आइसोलेशन सेंटर में जाना बेहतर समझा, जहां से वह फिर वापस नहीं आए।

खबर इतनी दुखद और डरावनी थी जिसको मैं अल्फाज में बयान नहीं कर सकता हूं। जब लोग आप के बीच से उठने लगे तो मौत का भयानक चेहरा साफ दिखने लगता है। खौफ इस कदर तारी हुया कि मैंने मोबाइल बंद किया और सोचने लगा। “अब मोबाइल नहीं खोलूंगा। फेसबुक भी चेक नहीं करूंगा…।” यह सोचते सोचते मैं सो गया।

नींद शाम को खुली। उठकर चाय बनाई। रहा नहीं गया तो फिर मोबाइल देखा।कुछ दोस्तों का मिस्ड कॉल था। एक दोस्त ने फोन पर बताया कि हालत बहुत खराब है और एक बड़े हिंदी चैनल के टीवी एंकर भी गुज़र गए हैं।

और भी जानकर फेसबुक पर मिली। क्या करूं? बंद रूम में खुद को कैद करके कर भी क्या सकता हूं? सोशल मीडिया पर मरहूम पत्रकार को लेकर तरह तरह के पोस्ट डाले गए थे। कुछ लोग उनको देश का बड़ा पत्रकार, भारत के विकास के लिए काम करने वाला कहा और उनके निधन पर गम का इजहार किया।

दूसरी तरफ, कुछ ऐसे भी पोस्ट दिखे जिसमें उनकी कम्यूनल पत्रकारिता को भी रेखांकित किया गया था। मेरी समझ में किसी भी इंसान की मृत्यु दुखदाई होती है। दुख के इस घड़ी में हमें सेंसिटिव होना चाहिए। अगर आप किसी के लिए हमदर्दी के दो शब्द नहीं बोल सकते तो कम से कम उसका दिल मत दिखाए। अगर कोई आप के साथ अच्छा सुलूक नहीं बरता हो, तो आप उसका कुछ नहीं कर सकते। मगर आप का इख्तियार खुद पर तो होना चाहिए। हमें हमेशा पॉजिटिव रहने की जरूरत है। इंसान पहले इंसान है। दया, सब्र, रहम इंसान का इंसान होने की पहचान है।

यह बात मुझे मोहम्मद साहेब की उस घटना से सीखने को मिलती है जब आप पर एक बुढ़िया बार बार बेवजह कूड़ा फेकती थी और आप से अदावत रखती थी। हुजूर पर वह बार बार कूड़ा डालती रही और आप ने सब्र का दामन थामे रखा। एक दिन जब बुढ़िया, उनपर कूड़ा नहीं फेका तो उनको हैरानी हुई। बाद में जब उनको मालूम हुआ कि बुढ़िया बीमार है तो वो उनका हाल जानने के लिए पहुंचे। बुढ़िया ने जब हुजूर का यह अंदाज देखा तो उसकी नफरत मोहमद साहेब की मोहब्बत में घुल कर ईमान में बदल गई।

मेरी यह सोच मेरे बहुत सारे दोस्तों को पसंद नहीं है। एक मेरे करीबी दोस्त का मानना है कि “जिस पत्रकार ने हमेशा दंगा भड़काने वाली बात किया हो, जिसने एक खास धार्मिक समुदाय को टारगेट करने को अपनी पत्रकारिता समझता हो, जो दिन रात नफरत उगलता हो, उसकी मौत पर कैसा मातम?”

मगर मेरी राय अलग है। मुझे लगता है कि सांप्रदायिकता फैलाने वाला कोई भी जर्नलिस्ट हाड और मांस का बना एक इंसान होता hहै। किसी की गलत बातों का विरोध करने का हक सबको है, मगर संवेदनशीलता और हस्सासियत भी कोई चीज़ होती है।

दोस्तो, यह मेरी निजी राय है। मैं कोई बड़ा आदमी नहीं हूं कि आप को मेरी बात माननी ही पड़ेगी। मगर यह भी तो सोचिए कोरोना जैसी बड़ी महामारी की लड़ाई को हम एक व्यक्ति तक क्यों सीमित कर देते हैं?

आज इंसानियत खतरे में है। अगर लोग ज़िंदा रहेंगे तब भी मतभेद भी रहेंगे। आज जरूरत इस बात कि है कि सरकार और सिस्टम के कान पकड़ा जाए। सेहत पर बजट बढ़ाया जाए। किसी भी इंसान को दवा और हॉस्पिटल के बगैर मरने न दिया जाए।

यह कैसे जायज ठहराया जा सकता है कि जिस के पास पैसा न हो वह बगैर इलाज के मर जाय? आखिर क्यूं एक बड़ा पत्रकार मारता है तो देश के बड़े बड़े नेता और मंत्री संवेदना जाहिर करते हैं, वहीं रमेश भाई और उनके जैसे हजारों लोग बेहतर स्वास्थ सुविधा के गुजर जाते हैं, तो बड़ी खबर नहीं बनती है?

जो पत्रकार मंदिर बनाने और पार्लियामेंट की नई इमारत बनाने के लिए दिन रात बैटिंग करता है, आखिर वह यह क्यों नहीं समझता कि करोड़ों का यह बजट और ऊर्जा अस्पताल बनाने की तरफ जाना चाहिए?

अगर ऐसा होगा तो देश का गरीब इंसान भी बचेगा और बड़े बड़े पत्रकार की जान भी बचेगी। आइए, राजनीतिक झगड़ों को कल तक के लिए ताक पर रख दें और एक ही लक्ष्य के साथ काम करें।

सब को एक समान स्वस्थ सेवा, चाहे वह रिक्शा चलाता हो या देश, मिले। आइए कसम खाए कि अब हम मंदिर मस्जिद के सवाल पर वोट नहीं देंगे। हम हेल्थ, एजुकेशन और रोजगार पर वोट देंगे।

– अभय कुमार
जेएनयू
अप्रैल 30, 2021

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