मिलन की खुशिया मनाये, दहन का जश्न नहीं : त्योहारों के बहुजनीकरण की आवश्यकता

विद्या भूषण रावत

(समाज वीकली)

– विद्या भूषण रावत

अभी होली का त्यौहार बीता है. हर एक त्यौहार के पीछे धार्मिक और सांस्कृतिक कहानिया होती है. आज के दौर में ये प्रश्न जटिल है लेकिन उन्हें किस तरीके से समझा जाए ये आवश्यक है. बहुत से लोग सारे त्योहारों को हिंदूवादी होने का लेबल लगाकर उन्हें न मनाने की बात करते है और अपने पैरो में खुद ही कुल्हाड़ी मार देते है. तिलक ने दशहरे का इस्तेमाल राजनितिक उद्देश्यों के लिए किया. बाबा साहेब आंबेडकर ने अपनी दीक्षा ‘विजयादशमी’ के दिन किया जिसे उन्होंने अशोका विजयादशमी कहा.हालांकि दीक्षा भूमि के कार्यक्रम दो अलग अलग तिथियों के हिसाब से होते है. बहुत से लोग इसे १४ अक्टूबर के दिन मानते है तो अधिकांश लोग अशोका विजयादशमी के दिन को ही दीक्षा भूमि में एकत्र होते है.

भारत के अन्दर हर एक त्यौहार के सीधे रिश्ते किसानो और उनकी फसल की बुआई, कटाई से सम्बंधित ही होते है. होली का समय भी फसल के पकने और काटने का समय है. किसान के लिए इनका बेहद महत्त्व है. होली को लेकर बहुत सी कहानिया है और जैसे के मैंने कहा तर्क के धरातल पर धर्म कभी भी खरा नहीं उतर सकते क्योंकि धर्म वही से शुरू होता है जहा तर्क ख़त्म होता है.

मै अभी भी अपने प्रेरणा केंद्र में हूँ और मैंने बहुत नजदीकी से पूरे गाँव में बदलाव को देखा है. ये बदलाव हमारे द्वारा कोई विशेष अभियान चलाने से नहीं हुआ लेकिन केंद्र में जो बहस और बाते होती है उसे लोग सुनते है और उन्हें लगता है के इससे उन्हें लाभ होता है. कल जब गाँव के कुछ बुजुर्ग मुझसे मिले तो मैंने होने कहा ‘ मिलन की खुशिया मनाये, दहन का जश्न नहीं’. होलिका कौन थी या रावण कौन था या कोई और क्या था, ये थे या नहीं, इस पर भी मुझे चर्चा नहीं करनी है लेकिन मै किसी भी व्यक्ति के ज़िंदा जलाने का जश्न नहीं मना सकता. जैसे मैंने कहा धार्मिक भावनाओं में कोई तर्क नहीं होता इसलिए उनसे तर्क करने की जरुरत नहीं होती. मै धार्मिक ग्रंथो और परम्पराओं को आलोचना के परे नहीं मानता लेकिन मै जानता हूँ के समाज बदलाव के लिए धार्मिक ग्रंथो के बदलने का इंतज़ार नहीं किया जाना चाहिए. कुछ हकीकतो को समझने के प्रयास किये जाने चाहिए.

त्योहारों को मनाये या ना मनाये ये तो एक व्यक्तिगत निर्णय हो सकता है और उसका सम्मान किया जाना चाहिए लेकिन हमारे देश में त्यौहार समुदायों के सामूहिक जश्न का रूप भी है. जितने भी त्यौहार है अलग अलग स्थानों पर अलग अलग परम्पराओ के साथ मनाये जाते है. नवरात्र में उत्तर भारत में कोई लहसून प्याज भी नहीं खाता लेकिन बंगाल में बिना माछ भात के काम नहीं चलता. हर जगह अलग अलग नैरेटिव है लेकिन पिछले दो तीन दशको में हिंदुत्व और आर एस एस की प्रेरणा से कार्यरत ‘बुद्धिजीवी’ ओर ‘इतिहासविद’ कोशिश कर रहे है के त्योहारों की विविधता को ख़त्म कर उन्हे समरूपी बना दिया जाए. भारत में हर एक त्यौहार का एक बुद्धिस्ट और जैन पक्ष भी है. उसके अलावा दलित-आदिवासी और बहुजन पक्ष भी है और ये भी अलग अलग स्थानों पर अलग अलग तरीके से मनाये जाते है. भगवानो के रूप भी विविध है और उनके नैरेटिव भी अलग अलग लेकिन उन सब के ऊपर ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण लादकर त्योहारों के दर्शन को महिला विरोधी और बहुजन विरोधी बना दिया गया है. अब सवाल ये है के क्या ये लड़ाई हम इन त्योहारों के बहिष्कार के जरिये जीत सकते है या त्योहारों या संस्कृति का ‘बहुजनीकरण’ करके जीत सकते है ? इसके लिए बहुत संयम की आवश्यकता है.

जब हम एक बड़े समाज की सांस्कृतिक विरासत की बात करते है तो हम ये कतई नहीं भूल सकते के बहुजन समाज का दर्शन रविदास का बेगमपुरा है, वो कबीर की मानववादी परंपरा है, वो नानक, दादू, नारायणगुरु और अन्य भक्ति के लोगो का दर्शन भी है. वो चार्वाक की परंपरा भी है, तो अनेको स्थानीय परम्पराए भी है. और इन सब में एक समानता है के ये सभी बुद्ध की बौद्धिकता और मानववादी मूल्यों पर आधारित है. जिस समाज की इतनी बड़ी परम्परा हो वह किसी को क्रूरता से जला डालने का जश्न तो कभी नहीं मना सकता. इसलिए त्योहारों के इस पक्ष को न भूले और उसी अनुसार निर्णय ले. बाकी बाबा साहेब अम्बेडकर ने पूरी २२ प्रतिज्ञाओ से बता दिया के हमें क्या करना चाहिए.

मै ये बात इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि हम जानते है के अभी भी समाज का अधिकाँश भाग मुसीबत में है और संघर्षरत है. वह मेहनतकश भी है और उसकी मानसिक संवेदनाओं को हम महज शब्दों की बाजीगरी से नहीं जीत सकते. तर्कवादी और मानववादी बनने का रास्ता बहुत कठिन है और मुझे लगता है के उससे बड़ा मानवतावादी बनना है कमसे कम हमारी सामजिक हालातो के सन्दर्भ में. बाबा साहेब इस बात को जानते थे इसलिए उन्होंने एक दम पर ये दावा नहीं कर दिया के देवी देवताओं या धर्म को ख़त्म कर दो. उन्होंने बुद्धिज़्म की भी अपनी नितांत नयी व्याख्या दी जिसे हमें नवयान कहते है. लोगो को पोंगा पंडितो और आडम्बरो से दूर रहने की सलाह दी, धार्मिक कर्मकाण्डो में अपना समय ना लगाने की बात की. क्योंकि समाज अभी इस स्थिति में नहीं है के वह सम्पूर्ण क्रांति कर डाले और इसका कारण बाबा साहेब आंबेडकर ने बताया था और वो है सीढ़ीनुमा असमानता. यानी जाति के अन्दर जाति है और सबके अपने अंतर्द्वंद है इसलिए उनके समाधान के लिए हमारे सांस्कृतिक प्रयास एक तरफ़ा और एक ही नैरेटिव के नहीं हो सकते. ये एक लम्बी लड़ाई है और बिना समाज में गए इसका समाधान नहीं हो सकता. समाधान लोगो को गरियाने और जलील करने में भी नहीं है. कोई भी व्यक्ति या समाज केवल इसलिए ख़राब या असंवेदनशील इसलिए नहीं है क्योकि वो कोई त्यौहार मानता या नहीं मानता है. जरुरत इस बात की है के हम लोगो तक पहुंचे और उनके दुःख दर्द को समझे. बिना उनकी समस्याओं में भाग लिये या दुःख दर्द को समझे, वे हमारे बात नहीं समझेंगे.

धर्म और वैज्ञानिक चिंतन की बहस दुनियाभर में है. तर्कवादी, मानववादी लोग इस कार्य में लगे है लेकिन वे धार्मिक लोगो से नफ़रत नहीं करते अपितु धर्म के सार्वजानिक जीवन में इस्तेमाल के खिलाफ है और राज्य के कानूनों को धार्मिकता में ढालने के विरोधी है. ऐसे सभी लोग मानते है के राज्य के कानूनों का धर्मनिरपेक्ष होना जरुरी है. एक मानववादी समाज बनाने के लिए हम सभी को भारत की बहुजन मानववादी विरासत को समझना होगा और उस पर चलना होगा.

क्योंकि ये सभी त्यौहार सदियों से चले आये है और सभी अपने अपने तरीके से मनाये जाते है इसलिए उनको ब्राह्मणवादी बता देना उन्ही ताकतों के हाथो में खेलना है जो सदियों से दलित आदिवासियों का शोषण करते आये है.

ऐसा नहीं है के हम वैकल्पिक संस्कृति की बात नहीं करते लेकिन वैकल्पिक संस्कृति अक्सर अल्पसंख्यको की होती है. बहुजन समाज का विकल्प तो उन त्योहारों का बहुजनीकरण करना है जिन्हें पुरोहितवाद ने अपनी कुटिल परिभाषाओं से दलित-आदिवासी-महिला विरोधी बना दिया.

धर्म की किताबो को बदला नहीं जा सकता लेकिन परम्पराए और रीती रिवाज समय के हिसाब से बदलते रहते है. बाबा साहेब ने जब गांधी जी के एक पत्र में शास्त्रो की आलोचना की तो उन्होंने यही कहा के शास्त्र भगवान् के बनाए हुए है और भगवान् के बनाए हुए को कोई बदल नहीं सकता. बाबा साहेब ने कहा के यदि शास्त्रो में जहा पर भी अन्याय और जाति लिंग के आधार पर भेदभाव की बाद की गयी है उन्हें हटा दिया जाना चाहिए तो गाँधी जी ने उससे साफ़ इनकार कर दिया था के धर्म में कोई बदलाव नहीं हो सकता. और ये बात हिन्दुओ में ही नहीं किसी भी धर्म के लोग ये बात कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे. हालांकि दुनिया भर के नास्तिक, मानववादी लोग धर्म की पुस्तकों को अंतिम सत्य नहीं मानते जिनमे मैं भी शामिल हूँ लेकिन आज के दौर की यह भी हकीकत है के धर्म की पुस्तकों को पुर्णतः समझने वाले बहुत कम होंगे और अधिकांश लोगो धर्म के नाम पर चल रही परम्पराओं से ही काम चलाते है इसलिए परम्पराओं का विरोध मुश्किल होता है . गीता और रामायण की आलोचना करना आसान है लेकिन खाप पंचायतो से बाहर रहना या छठ पूजा न मनाना, ब्रहम भोज में शामिल न होना आदि मुश्किल होता है क्योंकि दरअसल समाज तो परम्पराओं में जीता है इसलिए परम्पराओं का विकल्प देने की जरुरत है जिन्हें लोग स्वीकार कर सके. याद रखिये के कभी भी बहुत ‘क्रांतिकारी’ बनकर आप बदलाव नहीं ला सकते कंम से कम ऐसे समाज में जहा अभी भी अशिक्षा और अन्धविश्वास है. इसलिए बुध्ह के मध्य मार्ग की आवश्यकता है. एकदम पर लोगो के विश्वास पर चोट कर आप अपने को लोगो से दूर करते है और वो क्षेत्र पूरी तरह उन लोगो के लिए खाली छोड़ देते है जो उनका शोषण करते आये है. इसलिए सामजिक कार्यकर्ता के रूप में हमारी जिम्मेवारी बड़ी है और मात्र चीजो की आलोचना कर आगे बढ़ जाने से कुछ नहीं होगा. त्योहारों का विकल्प देना हमारी जिम्मेवारी है लेकिन वे तभी स्वीकार्य होंगे जब स्थानीय लोग आप पर भरोसा करते हो. जिन लोगो ने बुध धम्म अपनाया वे भी परम्पराओं से पूरी तरह से मुक्त नहीं हो पाए लेकिन अम्बेडकरी विवाह में लोग अब हिन्दू देवी देवताओं के स्थान में पर बाबा साहेब, सावित्री माई, रमाई, ज्योतिबा फूले के चित्र लगाते है. इस वर्ष तो छठ के पर्व में भी हमने लोगो को बाबा साहेब और बुद्ध के चित्रों के साथ छठ मनाते देखा. अब इसकी आलोचना आसानी से हो सकती है लेकिन अगर इसमें सकारात्मकता देखे तो यही के परिवर्तन धीरे धीरे आता है. अगर आप केवल उनलोगों के बीच में बोलने के आदी है जो आपकी विचारधारा में पहले से ही है तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन अपनी विचार धारा में नए लोगो को लाना सबसे बड़ी चुनौती है. एक ही जाति, पार्टी और विचार के लोगो में भाषण देकर तालिया पिटवा लेना एक बात है और धर्म की रुढियो में जकड़े समाज को अपने विचारों की और लाना चुनौतीपूर्ण तो है लेकिन असंभव नहीं है. लोगो को कोई भी बात घुट्टी में पिलाकर नहीं बताई जाति अपितु उनमे परिवर्तन की एक लम्बी लड़ाई है जो उनके दैनिक प्रश्नों की लड़ाई से जुड़कर भी है. यदि हम समाज के साथ उसके जीवन मरण के प्रश्नों पर साथ खड़े है तो वो आपकी बातो को गंभीरता से लेंगे और उस पर चलेंगे भी, नहीं तो किसी के भाषणों के लोगो के पास समय नहीं है.

मुझे बेहद ख़ुशी है के मलवाबर मुशहर बस्ती के लोगो ने हमारी बातो को समझा और होलिका दहन मात्र नाम मात्र का था. एक समय था जब लोगो हंगामा करते थे और घरो से जबरन लकडिया इकट्ठा करते थे लेकिन अबकी बार बहुत शांति पूर्वक तरीके से सब कुछ हो गया. लोग समझ गए के जब खाना बनाने के लिए लकड़ी नहीं है और उससे भी अधिक ये के व्यक्ति के अंतिम संस्कार के लिए भी लकड़ी उपलब्ध नहीं है. हमारी माई रामरती देवी की मौत के समय ये समस्या आई थे लेकिन हमारे पास लकडिया थी तो उनके अंतिम संस्कार में दिक्कत नहीं हुई और लोग अब ये बात समझते है के लकडियो को बर्बाद नही किया जाए. इसका अभिप्राय यह भी के मौजूदा आर्थिक पर्यावरणीय हालात भी हमारे बहुत से त्योहारों के मनाने के तरीको में परिवर्तन लायेंगे. मतलब साफ़ है, के जो भी त्यौहार प्रकृति विरोधी है उन्हें बदलना पडेगा. दुनिया का अंतिम सत्य प्रकति ही है और बड़ी से बड़ी ताकत को प्रकति के आगे झुकना पडेगा. यदि हमने प्रकति का दोहण बंद नहीं किया तो दुनिया के लिए खतरे की घंटी है. इसलिए दशहरा, दिवाली और होली सभी के मनाने के तरीके प्रकति के नियमो के अनुरूप करने पड़ेंगे और वही बहुजन संस्कृति रही है जिसमे हम नदी, पेड़, पहाड़, फसल, आदि को पूजते है और उसके समक्ष अपना शीश झुकाते है. हमारे त्योहारों में सकारात्मक बदलाव की जरुरत है और बहुजन समाज के मानवीय मूल्यों और प्रकृति प्रेम से ही संभव है. त्योहारों और परम्पराओं को पुरोहितवाद से मुक्त कर उनका बहुजनीकरण कर ही हम भविष्य की पीढियों को एक नया विकल्प दे सकते है जो सार्थक और सबके हित में होगा.

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