भारत में लोग हमेशा से जात, पात, धर्म, संप्रदाय और संस्कृति के नाम पर लड़ते आ रहे हैं। भारत में आपकी पहचान जाति से होती है न कि आपके शिक्षा, गुण और अच्छे कर्म से। यही वजह है कि यहाँ एक जाति को अपने जात पर गर्व होता है तो दूसरी जाति को अपने जात पर शर्म आती है। उनके लिए जाति एक अभिशाप है। मानव और समाज में जाति बनाने वालों ने शायद यही सोचकर जाति बनाया था जिससे तथाकथित उच्च जाति वाले निचली जातियों का भरसक शोषण कर सके और उनके ऊपर अपना हक़ जता सके। वर्तमान में हो रहे जाति आधारित हिंसा इसके साक्ष्य हैं कि कैसे उच्च जाति होने के कारण मनुष्य अपनी मानवता खोकर अमानवीयता पर उतर आता है। इस लिए जाति प्रथा मनोवैज्ञानिक रूप से मनुष्य के भीतर काम करती है और यह पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती रही है जिसके कारण यह कमजोर होने के बजाय और सुदृढ़ होता जा रहा है।
अगर कोई 12 से 15 वर्ष का बच्चा इंग्लैंड जैसे विकसित देश में भी अपनी जाति का गुमान करता है कि मैं अमुख जाति और उच्च जाति का हूँ तो निश्चित ही उपर्युक्त बातें साबित होती है कि कैसे हम अपने बच्चों के दिमाग़ में जाति का बीज बोते हैं और वही किसी तथाकथित निचली जाति के लोगों में हिंसा के रूप में विस्फुटित होता है। क्या तथाकथित निचली जाति के लोग मानव नहीं है? क्या इन लोगों की अपनी आत्मसम्मान नहीं है? क्यों इनको समाज में जानवरों से भी बुरा सुलूक किया जाता है? जबकि यह निचली जाति वाले उनके ही भगवान देवी-देवता को मानते हैं। इनके हर तीज त्यौहार को मानते हैं। इनके बनाये हुए देवालय में हर साल लाखों करोड़ों रूपये अपनी मेहनत में से दान देते हैं, चढ़ावा चढ़ाते हैं। इनके दिए हुए जाति के कलंक को ढोकर भी ख़ुश रहते हैं लेकिन इन्हें ढ़ोल गँवार समझकर इनकी हत्या, महिलाओं और बालिकाओं के साथ अनाचार, इनके पढ़ाई लिखाई से ईर्ष्या द्वेष, इनके अच्छे कपड़े पहनने से ऐतराज, इनके शादी के दौरान घोड़ी चढ़ने से ऐतराज, मात्र मूंछ रख लेने से इनकी पिटाई और हत्या हो जाती है आदि। यह कैसा मनोरोग है मानव का? अगर इन लोगों के छू जाने व संपर्क में आ जाने मात्र से अगर कोई सवर्ण भी अछूत हो जाता है तो इनके चढ़ाये हुए चढ़ावा पैसे दान आदि से अछूत क्यों नहीं होते? इनके उगाये हुए अन्न को खाने से अछूत क्यों नहीं होते? इनके बहु-बेटियाँ जो अछूत है उनके साथ अनाचार करने से ये कैसे अछूत नहीं होते? लाखों बातों की एक बात, जाति व्यवस्था शोषण का एक बहुत बड़ा हथियार और षड्यंत्र है जो अपने से निम्न वर्ग की मान मर्यादा, आत्मसम्मान को कुचलता है।
अभी-अभी हुए ताजा घटना नैनीताल उत्तराखंड के ओखलकांडा तहसील की है, जहाँ पर तथाकथित उच्च जाति के दो लड़कों ने दलितों के द्वारा बना कर दिए गए भोजन को खाने से मना कर दिया और फेंक दिया यह कहकर कि वे अछूतों के हाथ से बना खाना नहीं खायेंगे। ज्ञात हो कि दोनों लड़के कोरोना वायरस के चलते बचाव के लिए स्कूल में क्वारंटाइन किए गए हैं जो अभी खुद अल्पकालिक ही सहीं लेकिन अछूत की श्रेणी में हैं और ऐसे समय में भी इनका जातिवादी मानसिकता सर चढ़कर बोल रहा है। यह कोई पहला मामला नहीं है ऐसे ही केरल में आये बाढ़ के समय राहत कार्य में लगे दलित राहतकर्मी जब वहां के उच्च जातियों को राहत शिविर में खाना दे रहे थे तो वहां भी ऐसा ही हुआ।
यह कोई नई बात या घटना नहीं, ऐसी घटनाये आपको हर रोज हर जगह मिल जायेगी चाहे वह हॉस्पिटल हो, चाहे वह स्कूल हो, चाहे वह गाँव के खाप पंचायत का फरमान हो जो पूरी तरह जाति भेदभाव और पक्षपात पर आधारित होता है, जहाँ पर हमेशा ऐसे लोगों का कब्ज़ा होता है, जहाँ पर दलितों के प्रति इनके व्यवहार काफी आमनवीय होता है। दलितों को अच्छा करते देख इनके अन्दर की जातिवादी मानसिकता का बीज अँकुरित होने लग जाता है जिसके कारण वे हिंसात्मक हो उठते हैं। यहाँ पर इन सब से परे मन में एक विचारणीय प्रश्न है कि कैसे मनुष्य अपने जीवन से ज्यादा अपने रूढ़िवादी विचारधारा, परंपरा, जात-पात, धर्म को वरीयता देता है? बीमारी से भले ही मर जाए लेकिन किसी मनुष्य के संपर्क में नहीं आयेंगे, कुत्ते-बिल्ली पाल लेंगे लेकिन एक दलित को छू लेने मात्र से इनकी धर्म भ्रष्ट हो जाती है। पशुओं के अपशिष्ट गटक सकते हैं लेकिन एक दलित या निम्न वर्ग के लोगों के हाथ का पानी नहीं पी सकते है यह कैसी खिन्न मानसकिता है जो मानव को मानव नही मानता है जबकि संविधान में ऐसे भेदभाव के खिलाफ कड़े कानून बने हैं।
- डॉ. संतोष कुमार
- सहायक प्राध्यापक हैं और “गोंडवाना स्वदेश” पत्रिका छत्तीसगढ़ के संपादक मंडल हैं।
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