बुल्ले शाह की रचना में इश्क़ का संकल्प

बुल्ले शाह

(समाज वीकली)

बुल्ले शाह को पंजाबी सूफियों का सिरताज कहा जाता है। उनका जन्म गांव पांडोके, तहसील कसूर, जिला लाहौर में सन 1680 ईस्वी को हुआ। उन्होंने अरबी, फ़ारसी की उच्च तालीम हासिल कर रक्खी थी। पर यह सब उनको आत्मिक संतुष्टि नहीं दे सकी। फलस्वरूप आत्मिक मुर्शिद की तलाश शुरु हुई और लाहौर जा कर शाह अनायत कादरी के पास चले गए और उनके मुरीद (चेले) बन गए।

सूफियों का मार्ग इश्क़ का मार्ग है। वह इश्क़ मिज़ाज़ी (दुनियावी इश्क़) से इश्क़ हक़ीक़ी (रब्ब से इश्क़) का सफर करते हैं। बुल्ले को सारी कुरान कंठ-सत थी। पर वह इलम को प्रापति का एक साधन मात्र समझता था, मंज़िल नहीं। इस लिए बुल्ले शाह के कलाम में इलम और अकल को कोई जगह नहीं है।

“वेद पुराण पढ़-पढ़ थक गए, सिजदे कर-कर घिस गए माथे
न रब्ब तीरथ न रब्ब मक्के, जिस ने पाया उसका नूर अनवार
इश्क़ की नयी और नयी बहार, इश्क़ की नयी और नयी बहार”

उसको इश्क़ के बिना बाकी सब बातें बेकार लगती हैं:

“जाए आग में नमाज़ और कीचड़ में रोजे, कलमे पर डालो अब स्याही
बुल्ले शाह रब्ब अंदर से मिला, भूली हुई जे बात है लोकाई”

बुल्ला, उन पाखंडियों के साथ नहीं रहना चाहता, जो धर्म का प्रयोग अपने स्वार्थ कि लिए कर रहे हैं।

“धर्मसाल (गुर्दवारे) लड़ाकू हैं रहते, और ठाकुर-दवारे (मंदिर) में ठग्ग
मसीतों (मस्जिदों) में है कुसतीये रहते, और हम आशिक़ रहते अलग”

बुल्ले का इश्क़ लोक-लाज और जाति-पाति की परवाह नहीं करता। बुल्ले की जाति सईद थी, जबकि उसका मुर्शिद नीची कहे जाने वाली जाति अराईं जाति का था। इस बात के कारण लोग उसको तायने मरते थे। पर बुल्ले ने इस आलोचना का डट कर सामना किया।

“बुल्ले को समझने आयीं बहने और भाबियाँ
मान ले बुल्ले हमारी बात, और छोड़ दे साथ अराईं का “

बुल्ला जवाब देता है:

“जो भी मुझे सय्यद कहे, उसे नरक में मिले सजाएं
पर जो मुझे अराईं कहे उसे स्वर्ग में आनंद मिल जाए”

इंसानी मन को, अपने अधियात्मिक भाव प्रकट करने के लिए चिन्हों की आवश्यकता होती है, जैसे: कोई मूर्ति, पत्थर, क्रॉस, ॐ, धार्मिक पुस्तक, हरा रंग, एक दिशा की ओर ही सिजदा करना इत्यादि। भगती-सूफी संतों ने भी प्रेमी-प्रेमिका के चिन्हों को अपने भाव प्रकट करने के लिए अपनाया है। इसमें, प्रेमी उस रब्ब को, और प्रेमिका, इंसान/जिज्ञासु को कहा गया है।

शाह हुसैन को अपने मुर्शिद से इतना प्रेम था के उन्होंने अपना नाम ही अपने मुर्शिद के नाम पर रख रक्खा था ‘माधो लाल शाह हुसैन’ माधो लाल हिन्दू और वह खुद Muslim, वह समधर्मी-संस्कृति (सिंक्रेटिक कल्चर) की क्या मिसाल है!

बुल्ले शाह ने भी अपने मुर्शिद के साथ अपने इश्क़ का दिल को छूह जाने वाला विवरण दिया है। कहीं मिलाप की मस्ती है और कहीं बिरहों की तड़प। इश्क़ मिज़ाज़ी के बिना इश्क़ हक़ीक़ी को प्रापत नहीं किया जा सकता। बुल्ले शाह का कथन है:

“जब तक इश्क़-मिज़ाज़ी न लगे, सुई सिले न बिन धागे
इश्क़-मिज़ाज़ी दाता है, जिससे मस्त हो जाता है”

जब तक किसी ‘साकार रूप’ को नहीं देखा जाता, ‘आकार-रहित’ रब्ब से इश्क़ पैदा नहीं हो सकता।
जब बुल्ले के अन्दर इश्क़ की चिंगारी लग गयी तोह उसकी जाति मिट जाती है।

“बुल्ले शाह की जात नहीं कोई
मैंने पति अनायत को पाया है
जही नुक्ता यार ने पढ़ाया है”

जब उसकी मन की अवस्था उच्च हो जाती है तब उसकी सुर सामाजिक-धार्मिक पाखंड, और दिखावे के विरुद्ध और तीखी हो जाती है।

“फूक दो मुसल्ला, तोड़ दो लोटा,
न पकड़ो तसवी कासा सोटा (छड़ी)”
“अगर रब्ब मिलता नहाये धोये
तोह मिलता मेडक मछलियों को
……
बुल्ले शाह रब्ब उन्ही को मिलता
नियत जिनकी सच्ची हो”

इश्क़ मिज़ाज़ी का आरम्भ तो चाहे बहुत दिलकश होता है, पर वियोग का समय बहुत पीड़ा दायक होता है।
इश्क़ में प्रेमी की असली कीमत का अहसास विछुड़ने की अवस्था में ही होता है। बुल्ला अपने रूठे हुए प्रेमी-मुरशद को मनाता हुआ कहता है:

“बस करो जी अब बस करो जी
कोई बात तोह हस कर करो जी”

रूठे हुए प्रेमी-मुर्शिद को खुश करने के लिए, मानाने के लिए, बुल्ला पैरों में घुंगरू बाँध कर नाचता भी है:

“तेरे इश्क़ ने नचाया करके थेयिया-थेयिया
तेरे इश्क़ ने डेरा मेरे अंदर किया
भरा ज़हर का पियाला मैंने खुद ही पीया”

अंत में उसे हक़ीक़त का ज्ञान हो जाता है। जो रूहानी-प्रकाश उसे मुर्शिद के अंदर दिखता था वह अब मुर्शिद की कृपा द्वारा अपने खुद के अंदर भी प्रकट हो गया। इश्क़ का जे अंतिम पडाव है, जब माशूक और आशिक़ एक-रूप हो जातें हैं। सच्चा आशिक़ अपने माशूक़ के तस्सव्वुर में ऐसा खो जाता है कि उसकी अपनी अलग हस्ती ही नहीं रहती। वह अपने आपको माशूक़ का ही रूप समझने लग जाता है। बस इतना ही नहीं बल्कि उसको अपने अंदर-बाहर चारों ओर हर तरफ माशूक़/रब्ब के दर्शन होने लगते हैं, मैं-तूँ का अंतर मिट जाता है।

“राँझा-राँझा कहती नी मैं खुद ही राँझा होई
कहो नी मुझको धीदो-राँझा, हीर न कहो कोई
राँझा मुझ में, मैं रांझे में और ध्यान में न कोई
मैं नहीं वह खुद ही है, अपनी खुद ही करे दिलजोई”

जे रूहानी अवस्था की शिखर वाली स्थिति है।
हम देखते हैं कि बुल्ले ने अपने मुर्शिद से प्रेम प्याला पिया और बेखुद हो गया। फिर उसका इश्क़ जुदाई और विरहों की अगनि में निखरता है। जब इश्क़ हक़ीक़ी की सूझ आती है तोह मैं-तूँ की अलग हस्ती मिट जाती है। ऐसी रूहानी अवस्था उसको मिलती है जिसमे आशिक़ अपनी खुद की हस्ती को मिटा कर अपने माशूक कि तस्सव्वुर में ही खो जाता है।

– परगट सिंह
Pargatjnu@gmail.com

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