बिहार के चुनाव परिणाम  भारत मे लोकतंत्र का भविष्य तय करेंगे

Vidya Bhushan Rawat

(समाज वीकली)

– विद्या भूषण रावत

बिहार मे पहले दौर का मतदान शुरु होने वाला है और चुनाव प्रचार अपने चरम पर है. चुनाव मे गठबंधन बन चुके है और सभी अपने प्रति पूर्णतह आशावान है. मुख्यतह दो गठ्बंधन है : एक एन डी ए का जो भाजपा, जद ( यू) और अन्य छोटे दलो के साथ खडे है तो राजद, कांग्रेस और तीन वाम दलो के महागठ्बंधन ने यूवा तेजस्वी यादव के नेतृत्व मे कडी चुनौती खडी की है. इन दो के अलावा एक तीसरा गठ्बंधन भी है जो बसपा, उपेंद्र कुशवाहा और एम आई एम ( असदुद्दीन ओवेसी) का है और ये भी कुछ कर गुजरने और उथल पुथल करने की बात कर रहा है. समाजवादी पार्टी ने अबकी बार कोई उम्मीद्वार नही दिये और मेरे दृष्टिकोण से अखिलेश यादव का यह फैसला बेहद सूझबूझ भरा था और बिहार के नतीजो से उत्तर प्रदेश मे राजनैतिक समीकरण और गोलबंदी होना ही है और ऐसे मे सभी सेक्युलर पार्टियो को समझदारी दिखानी होगी और बातचीत के दरवाजे खुले रखने होंगे.

बिहार मे ये चुनाव मे राम विलास पासवान की कमी खलेगी और उनके बेटे चिराग पासवान ने नितिश कुमार के खिलाफ झंडा बुलंद किया है. हालंकि पासवान की लोक्तांत्रिक जनता पार्टी का कोई बहुत बडा आधार बिहार मे नही रहा है लेकिन बहुत सी सीटो पर उनके उम्मीदवार सत्ताधारी दल को नुकसान पहुंचायेंगे. ओवैसी-कुशवाहा-बसपा कैसा प्रदर्शन करते है ये तो 10 नवेम्बर को ही पता चलेगा लेकिन ये भी हकीकत है के बिहार मे इन पार्टियो की भविष्य भी ये चुनाव तय कर देगा.

चुनाव मे अभी तक तथाकथित राष्ट्रीय मुद्दे ज्यादा नही चल रहे है. नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ ने प्रचार मे गलवान मे शहीदो और राम जन्म भूमि, धारा 370 और अन्य प्रश्नो को उठाया था लेकिन शायद जनता ने उसे ज्यादा नही पसंद किया. दूसरी ओर तेजस्वी यादव का दस लाख नौकरियो का वादा इस समय बहुत काम कर रहा है, युवाओ को इसने बहुत आकर्षित किया है और उनकी सभाओ मे भारी भीड न केवल आ रही है अपितु उनकी बातो को अच्छा रिस्पोंस भी दे रही है. इसके उलट नितिश कुमार जी की सभाओ मे भीड के विरोधी नारो से उन्हे गुस्सा आता भी दिख रहा है और उनकी जुबान भी फिसल रही है.

वैसे चुनाव मे भाग लेना लोकतंत्र की निशानी है और हर एक चुनाव के असर देश की राजनीति पर भी पड्ते है. बिहार का चुनाव परिणाम भारत मे लोकतंत्र की दिशा भी तय करेगा. तेजस्वी के नेतृत्व मे महागठबंधन की जीत देश मे फिर से सेक्युलर-सामाजिक न्याय की शक्तियो को एक होने का मौका मिलेगा और वर्तमान सत्ताधारियो की आर्थिक और अन्य नीतियो को एक मज़बूत राजनैतिक चुनौती देने वाला विपक्ष भी मिल जायेगा. ये चुनाव उत्तर प्रदेश और बंगाल मे होने वाले चुनावो के लिये भी भूमिका तैयार करेगा और नये राजनैतिक समीकरण भी तय करेगा. इन चुनावो मे विपक्ष की सफलता देश मे कांग्रेस, वाम दलो और क्षेत्रीय दलो मे एक बडा गठबंधन बना सकता है जो अगले आमचुनावो मे देश को एक नया विकल्प प्रदान करने की क्षमता रखता हो.

बिहार मे अभी तक सभी दलो ने चुनावो को मुद्दो तक ही सीमित रखा है. भाजपा की और से कुछ ‘राष्ट्रीय’ मुद्दे उछाले गये लेकिन नतीजे कुछ नही निकले. रोजगार का प्रश्न जाति और धर्म की दिवारो को फांदता दिख रहा है. हालंकि प्रारम्भ मे भाजपा और जद(यू) ने तेजस्वी याद्व के 10 लाख युवाओ को रोजगार के वादे को मात्र जुमला कहा लेकिन बाद मे वे खुद भी वैसे ही वादे करने लगे. भाजपा राम मंदिर की बात तो कर रही है और उसके स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी ने गालवान घाटी के सवाल को उठाया भी लेकिन जनता के प्रतिक्रिया बहुत ही ठंडी रही है. अब अंदर खाते ये समझ आ रहा है के यह चुनाव नितीश कुमार और उनके दल का भी भविष्य तय कर रहा है. आम तौर पर सयमित दिखने वाले नितीश कुमार अपनी भाषा पर नियंत्रण खोते दिख रहे है जो दिखा रहा है के उन पर दवाब बहुत अधिक है. चिराग पासवान भी उन पर हमला कर रहे है और ये साफ दिखाई देता है के भाजपा की उनको सह है हालाकि वह बहुत कुछ नही कर पायेंगे लेकिन सत्तारूढ गठ्बंधन को नुकसान पहुचायेंगे ही.

तेजस्वी के नेतृत्व मे महागठबंधन मे वाम दलो के होने से इसे ताकत मिलेगी क्योकि बिहार मे उनका प्रभाव रहा है विशेषकर सी पी आई ( माले) का व्यापक जनाधार है. हालांकि कांग्रेस के बारे मे प्रचार किया जा रहा है के वह कमजोर कडी है लेकिन सभी दलो का साथ रहना आवश्यक है क्योकि इसके फल्स्वरूप वोटर संशय की स्थिति मे नही रहते. मुझे लगता है के इन सभी दलो का जमीन पर तालमेल ठीक है. सभी दलो के अपने समीकरण होते है और हकीकत ये है के आर जे डी ने भी बही सीटे छोडी होगी जहा वह बहुत कमजोर है. कांग्रेस के साथ रहने से सरकार के मज़बूती से चलने की सम्भावना ज्यादा है. अबकी कांग्रेस कोयेलिशन मे काम करना सीख रही है. अब ये भी जरूरी है के 1970 के विपक्ष गैर कांग्रेसवाद से बाहर निकलकर काम करे क्योंकि बिना कांग्रेस की भूमिका के राष्ट्रीय स्तर पर एक गैर भाजपाई विकल्प नही बन सकता. ह्म सभी इस हकीकत को अगर पह्चान ले तो अच्छा बाकी कांग्रेस के पुराने इतिहास को दोहरा कर किसी को भी लाभ नही होने वाला. कांग्रेस के लिये भी यह आवशयक है के वह जहा उसकी भूमिका या पार्टी मज़बूत स्थिति मे नही है वहा जबरन प्रत्याशी न दे और केवल सहायक की भूमिका मे रहे.

लोकतंत्र की सेहत के लिये जरूरी है के लम्बे समय तक एक पार्टी सत्ता मे न रहे. कांग्रेस के लम्बे समय तक सत्ता मे रहने के फलस्वरूप सेक्युलर विपक्ष कमजोर हुआ क्योंकि उसने गैर कांग्रेसवाद के नाम पर जनसंघ और आर एस एस से समझौता किया और उस कमजोरी का लाभ भाजपा ने उठाया. जनता पार्टी का प्रयोग विफल हो गया क्योंकि पद की मह्त्वाकांक्षा के होते पार्टी को किसी ने नही देखा. हाशिये पर रह्ने वाले संघ को राश्ट्रीय राजनिति मे प्रवेश गैर कांग्रेसवाद के नाम पर मिल गया. संघ ने इसका पूरा लाभ लिया. जनता प्रयोग पिट गया और 1980 के बाद से ही देश की राजनीति मे समाजवाद और सेक्युलरिज्म की बद्नामी का दौर भी शुरू हो गया क्योंकी नेताओ और पार्टियो ने अवसरवादी राजनीति  की जो अब तक जारी है. नीतीश कुमार की राजनीति और उनकी पार्टी भी इन चुनावो के बाद बहुत कुछ करने की स्थिति मे नही रहेगी. लालू इस बात को समझते थे और इसलिये उन्होने इस विषय मे भाजपा से कोई समझौता नही किया और यही कारण है के लालू की राजनीति को खत्म करने के लिये उनके ऊपर इतने सारे केस ठोक दिये गये. अगर चारा घोटाला था तो एक मामला बना कर वह केस लडते लेकिन उनकी राजनीति से डरने वालो ने उन्हे इतने केसो मे उलझा दिया के उनके लिये सीधे सीधे राजनिति करना मुश्किल था लेकिन फिर भी लालू की राजनीति को जनता ने खारिज नही किया और इसलिये उनकी अनुपस्थिति मे भी उनकी पार्टी बिहार की मुख्य राजनीतिक दल है तो ये एक बहुत बडी उपलब्धि है. इसलिये लालू यादव की परिपक्वता की जरूरत उत्तर प्रदेश मे भी है ताकि सभी समान विचार-धारा के दलो मे आपसी तालमेल मे सहमति हो और एक लम्बे समय के सह्योग की रणनीति बन सके.

बिहार किसको वोट करता है ये तो 10 नवम्बर को ही पता चल पायेगा लेकिन ये तो हकीकत है बिहार मे राजनीति की दिशा और दसा तय हो जायेगी. ये भी अब साफ है कोई ये नही कह सकता के ‘विकल्प’ कहा है क्योंकि तेजस्वी यादव को लोग अब विकल्प के तौर पर देख रहे है. ये तो निश्चित है के तेजस्वी बिहार की राजनीति के केंद्र बिंदु बनेंगे और बहुत से नये नेता उभरेंगे. सवाल केवल इतना है के क्या बिहार भारत मे बडे राजनैतिक बद्लाव की शूरुआत करेगा या हम सभी एक बार फिर से हताश होंगे ? बिहार की जनता पर लोकतंत्र बचाने की बहुत बडी जिम्मेवारी है, आशा है वह निराश नही करेगी

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