कोरोना से लड़ती हमारी दिल्ली….

अभय कुमार

(समाज वीकली)

कितने दिनों से रूम में बंद हूं। कोशिश रहती है कि सब्ज़ी किसी तरह चार-तीन दिन तक चल जाए। मेरे पास फ्रिज तो नहीं है। इनते छोटे से रूम में जब खुद रहने की जगह न हो तो फ्रिज महाराज को कहां आशन दूँ? ऊपर से मकान मालिक 9 रुपये यूनिट बिजली बिल उगाहता है, जिसके खिलाफ बोलने वाला कोई नहीं है। मगर कभी-कभी सोचता हूं कि अगर फ्रिज होता तो कम से कम एक हफ्ते की सब्जी खरीद कर रख लेता! दूध भी कई पैकेट रख लेता, फिर दूध की चाय मिलती रहती। मगर भीगे हुए कपड़ों में सब्जी ढक के रखने से सब्जी को थोड़ी राहत मिल जाती है। दस रुपये का पावडर का दूध चाय बनाने में काम आ रहा है।

मगर ज्यादा दिक्कत उन साथियों को हो रही है, जो रूम पर खाना नहीं बनाते रहे हैं। जेएनयू का मेस, गंगा ढाबा का पराठा और आलू की सब्जी और झारखंड वाली एक आंटी की खाने की दुकान से कल तक काम निकल आता था। मगर लॉकडाउन ने उनको यह बतला दिया कि खाना बनाने का ‘सेटअप’ सबको अपने पास रखना चाहिए। थोड़ा सा हाथ पैर हिला लेने से पेटभर और मन भर खाना मिल जाए, तो यह सौदा फ़ायदे का ही है। मुझे खाना बनाने या साथियों को दावत कराने में कोई परेशानी नहीं रही है।

मेरी पुरानी आदत रही है की मैं अक्सर देर रात तक जगा रहता हूं। कोरोना लॉकडाउन में तो रुटीन और भी उल्टा होते जा रहा है। आजकल रात में चाय कुछ ज्यादा ही पी रहा हूँ। पढ़ते वक़्त यह मेरे लिए ईंधन का काम करता है। दस से पंद्रह पेज पढ़ने के बाद एक चाय तो बनती ही है। उबलते हुए चाय को देखते हुए बहुत सारे खयालात भी उफनकर ऊपर उठने लगते हैं।

खुद की सेफ्टी और दूसरों की हिफाजत के लिए कोरोना काल में मिलना-जुलना तो बिल्कुल बंद है। हाँ, फोन जरूर करके दोस्तों का हाल लेता रहता हूं। “कैसे हैं आप?” “घरवाले ठीक हैं? – ऐसे सवालात से बातचीत शुरू होती है। जिस से बात नहीं हो पाती है उसके ‘सोशल साईट’ पर जा कर उसके पोस्ट देखता हूँ। कई बार शेयर किए गए पिक्चर और वीडियो को देख कर उनकी खैरियत और कैफियत जान पता हूँ।

मिसाल के तौर पर एक जानने वाले साहब ने अपनी ‘मैरेज अनिवर्सरी’ की तस्वीर और वीडियो कल शेयर की थी। वीडियो में मियां बीबी बड़ा सा केक काटते हुए दिख रहे हैं। केक से जलती हुई फूलझड़ी भी ऊपर उठ रही थी। हाज़रीन ताली बजा कर उनको मुबारकबाद दे रहे थे। बच्चे ताली बजाने में आगे थे। साहेब और उनकी साहिबा बड़ी खुश दिखी। ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ का कहीं नाम-व-निशान न था। खुद साहेब सब के मुंह में केक डाल रहे थे। सुंदर कपड़े पहने, उनके जीबा चेहरे मुस्कान से चमक रहे थे । वहां का माहौल दिल्ली से बिल्कुल अलग था। शायद छोटे शहर और गावं में लोग कोरोना का ज्यादा टेंशन नहीं ले रहे हैं। बहुत सारे लोग उन्हें लापरवाह भी कह सकते हैं। मगर शायद वह दिल्ली वालों की तरह पल पल नहीं मर रहे हैं।

सोशल मीडिया पर यह सब माजरा देखने से पहले, मैंने अपने एक पड़ोसी और जेएनयू के सीनियर साथी को फोन लगाया। सीनियर साथी के साथ आजकल बड़ा धोका हुआ है। बात यह है एक एक उनके एक मित्र उनके पास रहने के लिए आए। भलाई में सीनियर साथी ने अपने कमरे के दरवाज़े उनके लिए खोल दिए। मगर अगले सुबह उनको ‘शॉक’ लगा कि अतिथि महाराज कोरोना पॉजिटिव हैं। जहां वह कल तक रहते थे, वहां से उनके रूममेट ने उन्हें कोरोना पॉजिटिव होने पर रूम से निकाल दिया था। रहने को जगह नहीं थी, तो कोरोना के यह मरीज ठिकाना ढूंढते ढूंढते सीनियर साथी के रूम पर पहुंच गए थे। जहाँ एक तरफ अतिथि की बड़ी गलती यह थी कि उन्होंने ने कोरोना पॉजिटिव होने की बात छुपाई, वहीँ यह भी सोचने की ज़रुरत है की जब उनको उनके रूम से निकाल दिया गया तो तो उनके पास चारा ही क्या बच गया था? पाच से सात हज़ार जिसकी सैलरी हो वह सिंगल रूम कैसे ले सकता है?

दिल पर पत्थर रखकर जेएनयू के सीनियर साथी ने अपने अतिथि दोस्त को घर से निकाला। मगर इसके बाद भी कोरोना का खौफ उनके अन्दर नहीं निकला। बार बार वह अपना सर छुते और जानने की कोशिश करते कि बुखार तो नहीं आ गया, सीने में दर्द तो नहीं उठ गया, साँस लेने में दिक्क़त तो नहीं होने लगी है। खौफ नामी अजगर उनको धीरे धीरे निगलने लगा था। “अगर मुझे कोरोना हो गया हो तो…?” “अगर मैं मर गया तो…?” ऐसे सवालात उनके दिमाग में हथौड़े की तरह चोट करने लगे।

सीनियर साथी ने फिर रात किसी तरह काटी। उनको कोरोना के ‘सिंपटन’ आने का शक होने लगा। उनकी बेचैनी बढ़ने लगी थी। सुबह होते ही पास के मोहल्ला क्लिनिक अस्पताल में गए और ‘इम्यूनिटी’ बढ़ाने की बहुत सारी दवाई ले ली। विटामिन-सी की गोली भी लाई और विटामिन-डी का सिरप भी। दावा का सेवन किया, मगर फिर भी शक बढ़ता ही रहा। उनको लक्षण उभरने का खौफ और भी सताने लगा। हिम्मत कर के सीनियर साथी पास के सरकारी स्कूल पहुंचे, जहाँ कोरोना टेस्ट का शिविर लगा हुआ है। सैंपल दिया। दिल धक-धक कर रहा था। “कोरोना पॉजिटिव आया तो…..नहीं!” इन सवालों ने उनका कलेजा बहार ला दिया।

मगर, रिपोर्ट निगेटिव आई। उनको बड़ी राहत मिली। यह सब आपबीती उनहोंने मुझे फ़ोन पर बतलाई। मुझसे उन्होंने इस बात पर भी दुःख ज़ाहिर किया कि उनको अपने अथिति को रूम से ज़बरदस्ती निकालना पड़ा। “मुझे बहुत बुरा लगा कि मैंने किसी को अपने रूम से निकाला है। समान बाहर किया। मगर मैं कर भी क्या सकता हूं? कोई कोरोना लेकर मेरे रूम में कैसे आ सकता है? कोई मुझे कैसे मार सकता है? कोई कोरोना पॉजिटिव हो, तो उसे दूसरों की जान की फिक्र तो करनी चाहिए”। सीनियर साथी मुझे अपने दिल का हाल सुना रहे थे।

मगर कोरोना रिपोर्ट नेगेटिव आने और इम्यूनिटी की दवा का सेवन करने के बाद भी मेरे सीनियर ने दिल्ली के ‘गमजादा’ माहौल से बाहर निकलना बेहतर समझा। कल ही उन्होंने मुझे बतलाया कि “मैं अपने घर आ गया हूं। दिल्ली की हालत ठीक नहीं लगी। कई लोगों की मौत मेरे मोहल्ले में हो गई थी। दिल बड़ा घबरा गया था।” कल तक मैं यही समझ रहा था की वह वह अभी भी मेरे मोहल्ले में ही हैं।

सीनियर साथी को अपने घर पहुंचने में दिल्ली से चार-पांच घंटे रेल में लगते हैं। “यहाँ इतना कोरोना नहीं है। आधे लोग तो मास्क भी नहीं पहन रहे हैं। दिल्ली वाला डर यहां नहीं है।” सीनियर साथी ने कहा। जब मैंने पूछा कि घर पर कब तक रहेंगे, तो वह कुछ सेकंड के लिए खामोश हो गए और फिर कहा। “दिल्ली तब आऊंगा, जब केसेज कम हो जायेंगे…बेड और ऑक्सीजन का इंतजाम हो जायेगा…. वैक्सीनेशन लगने लगेंगे।”

सीनियर साथी का घर आगरे के पास एक छोटे से कस्बे में है। शायद उनके लिए घर जाना बहुत आसान है। मेरा घर बिहार है। जहां ट्रेन और फिर बस से सफ़र करना पड़ता है। घर पहुंचते चौबीस घंटे से ज्यादा लग जाते हैं। मुझे तो अभी ट्रेन से घर जाने की हिम्मत नहीं है।

बंगाल के मेरे एक दूसरे साथी भी अचानक से घर निकल आए हैं। बंगाली दादा उम्र में मुझ से बड़े हैं, मगर जेएनयू में जूनियर थे। उनको फोटो उठाना और वीडियो बनाना बहुत पसंद है। जेएनयू में पिछले कई सालों में जो कुछ भी ‘हंगामा’ हुआ, उसको उन्होंने अपने कैमरे में कैद किया है। उनकी तारीफ में जेएनयू के एक नामचीन इतिहास के प्रोफेसर ने कहा था कि वह जेएनयू के आज के दौर के “अबुफजल” हैं। जब मैं उनकी मैं उनको अबुफजल के लकब से मुखातब करता हूँ, वह बहुत खुश हो जाते हैं। उनको खाना बनाना अच्छा आता है। जेएनयू के बड़े बड़े नेता उनके रूम पर कई बार बिरयानी खा चुके हैं।

‘अबुफाजल’ साहेब कुछ ही दिन पहले दिल्ली आए थे। मगर दिल्ली की कोरोना पीड़ित सुनसान गलियां और जेएनयू की खामोश आरावाली पहाड़ी उनको डराने लगी। जबतक उनका कैमरा एक दिन में सौ-दो सौ फोटो न उठा ले, और वह खुद पांच सौ लोग से मिल न लें, उनको रात में नींद नहीं आती। मगर यह सब तो आजकल मुमकिन नहीं है, तभी तो वह बंगाल निकल गए।

अजीब इत्तेफाक है कि ‘अबुफज़ल’ के बंगाल पहुंचते ही वहां से साम्प्रदायिकता का खतरा धक्का खाकर बाहर आ गया। मतलब यह कि हवाई चप्पल और साधारण साड़ी पहनने वाली एक महिला ने बंगाल को उत्तर प्रदेश बनने से बचा लिया। साम्प्रदायिक ताकतों ने क्या नहीं किया था? हर चीज का उपयोग और दुरुपयोग किया। छल और कपट का सहारा लिया। लोगों की जान तक दाव पर लगा दी थी। कोरोना के बढ़ते संक्रमण में भी खूब रैलियां की, मगर उनको एक साधारण सी दिखने वाली औरत ने मात दे दी। बंगाली दादा कल थोड़े से खुश दिखे और कहा “कम्युनल फोर्सेज का फ्यूचर बंगाल में नहीं है। जल्दी ही अवसरवादी लोग भी उनसे भाग जायेंगे।” मगर वह इतना ही कह कर नहीं रुके। “लाल झंडे की पार्टी ने बंगाल में कम्यूनल फोर्सेज को मजबूत किया है और अब नकली लाल झंडे को बंगाल के लोग कभी नहीं लायेंगे। कम से कम आने वाले फ्यूचर में इस पार्टी का कोई स्कोप नहीं है”।

फिर बात कोरोना महामारी पर भी आई और बंगाली दादा ने दावा किया वह इस वबा से महफूज हैं। मगर कैसे? उनका जवाब यह था “मैं हर रोज एक्सरसाइज करता हूं। हर्बल का सेवन करता हूं। और पॉजिटिव रहता हूं।” उनकी नसीहत यह है कि कोरोना पॉजिटिव से बचने के लिए दिल और दिमाग को पॉजिटिव रखना जरूरी है। फिर हम कुछ देर तक और बातें करते रहें। कोरोना और पॉलिटिक्स पर बात होती रही। उन्होंने ने वादा किया कि वह जल्द दिल्ली आएंगे। उम्मीद करता हूँ कि कोरोना से लडती हमारी दिल्ली फिर से अपनी पुरानी खुशी और रौनक की तरफ लौटे आएगी।

– अभय कुमार
जेएनयू
3 मई, 2021

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