कोरोना या सिस्टम? मजदूर का बड़ा दुश्मन कौन?

(समाज वीकली)

कल रात को खूब सारी सब्जी, दूध और चिकन खरीद कर लाया था। सोचा था बार बार दूध की चाय की चुस्की लूंगा। फिर भात, सब्जी और चिकन खाऊंगा। मगर, नसीब में भूखे सोना था!

दूध, पानी, चीनी और चायपत्ती अभी उबलना भी शुरू न हुआ था कि गैस जलना बंद हो गया। मुझे लगा कि फ्लेम हवा से बूझ गया होगा। लाइटर को खट-खट कर के जलाया। उससे चिंगारी भी निकली, मगर गैस का बर्नर सोया का सोया ही रहा। फिर माचिस जलाई। फिर भी गैस के चूल्हे से आग नहीं निकला। उधर से आग न निकली तो दिल में गुस्से की आग जल पड़ी। “इसे भी अभी जाना था, कमबख्त, बोल के नहीं जाता।” मन ही मन में गैस सिलिंडर को कोस रहा था। मुझे लगता है कि सिलिंडर बनाने वाला इंजीनियर भी स्मार्ट नहीं है। अगर होते तो कोई मीटर लगा देता सिलेंडर में। जैसे मोटरसाइकिल और कार में होता है, जिससे मालूम हो जाता है कि गाड़ी में कितना तेल है। रिजर्व में गाड़ी आते ही हम खबरदार हो जाते हैं। और फिर तेल लेने के लिए पेट्रोल पंप दौड़ने लगते हैं। ऐसा कुछ सिस्टम गैस सिलिंडर में भी होना चाहिए। गैस एक दो लीटर बचा हो तो अलर्ट मिल जाए। कोई घंटी भी तो पिट की जा सकती है? अगर कुछ नहीं हो पाता है, तो इंजीनियर ग्लास का भी तो सिलिंडर बना सकता है?

मैं भी क्या क्या सोचने लगा था? कहीं कांच का सिलिंडर हो सकता है? जो भी हो गैस खत्म होने पर बड़ा बुरा लगता है। दो सिलेंडर हैं, मगर एक को दोस्त इस्तेमाल कर रहा है। रात को उसके घर से सिलिंडर लाना भी तो मुश्किल है।

रात में केला खाकर सो गया। नींद तो नहीं आ रही थी। हर वक्त सुबह होने का इंतजार कर रहा था। जैसे ही खिड़की के बाहर सफेदी दिखी, तो जान में जान आई कि सुबह हो गया। क्या गैस डिलीवरी करने वाले को कॉल करू? फिर ख़ुद ही अपने को डाटा और कहा , “इंसान हो कि नहीं। गैस डिलीवरी करने वाला थका हारा सो रहा होगा। उसे नींद से जगाने का जुल्म मत करो!”

फिर थोड़ी देर के लिए मेरी आंख लग गई। सोकर उठा और मोबाइल देखा तो नौ बज चुका था। गैस वाले भाई को फोन लगाया। अपने जवाब से उन्होंने राहत भर दी, “सर जी आधे घंटे में आ रहा हूं”।

उनके आने से पहले खाली सिलिंडर को चूल्हे से निकाल कर रूम के बाहर रखा। रूम का कचरा और कूड़ा भी बाहर रखे डस्टबिन में डाल दिया। फिर हाथ को साबुन से खूब रगड़-रगड़ कर धोया। यह सब करने के बाद फिर बेड पर लेट गया। थोड़ी देर में ऐसा लगा कि रूम से बाहर रखे सिलिंडर को कोई घसीट रहा है। कही कोई चोरी तो नहीं कर रहा है?

आवाज कमरे के अंदर से मैंने आवाज दी। आप कौन? उधर से जवाब आया “सर मैं गैस वाला।” उसकी आवाज मैने पहचान ली। मैने कहा कि “सिलेंडर को बाहर ही छोड़ दीजिए”। पैसा मांगा तो कहा ऑनलाइन पेमेंट कर दूंगा। वह चला गया।

थोड़ी देर बाद रूम से निकला। मुंह पर मास्क था। हाथ में सेनेटाइजर का बोतल और कपड़ा। सिलिंडर पर सेनेटाइजर स्प्रे किया। कपड़ा से उसे पोछा। फिर रूम के अंदर उसे घसीट कर ले गया। सिलेंडर उठ भी नहीं रहा था। किराए का मकान है। अगर फर्श पर खराश पड़ जाए, तो मकान मालिक आप की जिंदगी में खराश पैदा कर देगा। बचते बचाते उसे किचन तक ले गया। सिलेंडर को रेगुलेटर से कनेक्ट किया। माचिस जलाई। जैसे ही चूल्हे से फ्लेम निकला, जिंदगी की बुझती लव भी तेज हो उठी। काली चाय बनाई और पीने के बाद, बेड पर आया और सोचने लगा। क्या गैस डिलीवरी करने वाला इंसान नहीं है? उस के लिए लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग का क्या मतलब है? उसे कोरोना से ज्यादा खतरा है, या सिस्टम से…..?

गैस डिलीवरी करने वाला इंसान नेपाल से है। वह लंबे वक्त से गैस की डिलीवरी का काम करता है। इससे पहले मेरे रूम में नेपाल का ही एक दूसरा नौजवान गैस डिलीवरी करता था। पिछले साल दिवाली के आस पास नौजवान गैस डिलीवरी बॉय घर चला गया। तब से वह लौटा नहीं है। उसकी जगह अभी के गैस डिलीवरी बॉय ने ले ली है। अभी वाला डिलीवरी बॉय उमर दराज है। मुझे लगता ही पचास के करीब होगा। इतना भरी सिलेंडर को साइकिल पर लाद कर दिल्ली के मुनिरका की बेहद तंग और भीड़ भाड़ वाली गलियों से खींचना बहुत मुश्किल काम है। सभ्य समाज इंसान को जानवर से भी नीचे समझता है। कोई अहमियत नहीं है इस दौर में इंसान की। पैसे और मुनाफा के लिए इंसान इंसान का खून चूस रहा है। सभ्य समाज गन्ना मशीन की तरह इंसान के जिस्म से खून निचोड़ लेता है।

सोचिए जरा, जो गैस डिलीवरी करने वाला इंसान भरा सिलेंडर ले कर रूम तक आता है, उसे हमारा सिस्टम क्या दे पता है? गैस सिलेंडर के दाम पिछले पांच सात सालों में पांच सौ से बढ़ कर एक हजार के आस-पास हो गया है। ऊपर से लोगों को दी जाने वाली सब्सिडी भी धूर्तता के साथ खत्म कर दी गई है। मगर गैस डिलीवरी करने वाला इंसान वही का वही पड़ा है। शायद उसकी हालत और भी खराब हुई है। जैसे-जैसे गैस सिलिंडर पर मुनाफा बढ़ रहा है, वैसे-वैसे गैस सिलिंडर डिलीवर करने वाला इंसान की मुसीबत भी बढ़ रही है।

सोचिए ज़रा जब कुछ घंटे के लिए मेरे किचन में गैस खतम हो गया, तो मेरी जिंदगी उजड़ गई। मगर जिस की वजह से मुझे और आप को खाना नसीब हो रहा है, उसकी कोई अहमियत नहीं है। वह खुद भूखा है। समाज और सिस्टम उसे कोरोना के दौर में मरने के लिए छोड़ दिया है। क्या यह सिस्टम गैस डिलीवरी बॉय के बगैर चल सकता है? क्या रेस्टोरेंट चल पाएगा? क्या कॉलोनी आबाद रह पाएगी? क्या लोग खा पी सकेंगे। हरगिज नहीं।

क्या हमने कभी पूछा है कि गैस डिलीवरी करने वाला इंसान के पास खुद का गैस चूल्हा है? क्या उसके पास खुद का किचन और मकान है? क्या उसको सोशल सिक्योरिटी मिलती है। अगर वह आज बीमार हो जाएं, तो उसका इलाज कैसे होगा? इन सब सवालों से मिडल और अपर मिडिल क्लास को कोई मतलब नहीं है। उसकी जिंदगी सुंदर-सुंदर झबरीले कुत्ता और बिल्ली पलने में गुजर रही है। पब और रिजॉर्ट में वक्त गुजरने में हो रही है। शराब के ब्रांड और और नए नए फिक्शन पर बात करने पर होती है।

मुझे गलत मत समझिए। मैं आप को “पेट” रखने या उससे प्यार करने से नहीं रोक रहा हूं। इंसान को जानवरों से प्यार जरूर करना चाहिए। मगर, यह प्यार कभी आप का किसी कूड़ा फेकने वाले, फ्लोर साफ करने वाले, और गैस डिलीवरी करने वाले पर क्यों नहीं जताते। क्यों जब चॉइस और लाइफ स्टाइल की बात आती है, तो मिडल क्लास इस के पक्ष में खुलकर सामने आ जाता है और हाय तौबा मचाने लगता है, मगर उसकी संवेदनशीलता मजदूर और दलित के बारे उनती नहीं दिखती। क्या जब दिल्ली जल रही थी, तो मिडल क्लास से लोग बाहर सड़कों पर आए थे। क्या मजदूरी के खिलाफ कानून पास हुआ तो वेलोग विरोध किए? कुछ तो कियेबथे, मगर ज्यादातर अपनी दुनिया में मस्त थे। “वी आर अ पॉलिटिकल। पॉलिटिक्स इस शीट…..”

ऐसे ही मेरे कुछ दोस्त दिल्ली के पॉश वसंतकुंज में गेटेड कॉलोनी में रहते हैं। घर में बहुत सारे कुत्ते हैं। कुत्तों से इतना प्यार है, कि वह बेड पर सोता है। उसके लिए हर रोज चिकन बनता है। थोड़ी सी तबियत खराब होने पर, कुत्ते को बड़े डाक्टर से दिखाया जाता है। यह सब तो ठीक है। पेट लव अच्छी चीज है। और न ही मैं सुख और आराम की जिंदगी का विरोधी हूं। जिसको जो खाना हो, जो पीना हो, जिस से प्यार, शादी ब्याह करना हो, सब को आजादी होनी चाहिए। मगर, ऐसी आजादी मजदूरों को क्यों नहीं मिलती। मजदूर भी तो अच्छा खाना, अच्छा पीना और हिल स्टेशन पर घूमना चाहता है। उसे भी तो हसरत है कि उसका भी अपना कोई घर हो। उसे भी कोई प्यार करे। उसे भी कोई अपनाए। वह दया और चैरिटी नहीं चाहता। बल्कि वह बराबरी चाहता है।

बराबरी मिलना तो दूर की बात, समाज में मजदूर के ऊपर सारा दोष थोप दिया जाता है। जिस बसंतकुंज वाले पेट लवर दोस्त का ज़िक्र मैं ऊपर कर रहा था, उनको जब मालूम हुआ कि मैं गैस डिलीवरी वाले इंसान को कुछ एक्स्ट्रा पैसे दे देता हूं, तो इस पर वह नाराज होकर कहा, ” पागल हैं आप, क्यों एक्स्ट्रा पैसे देते हो इन गैस वालों को। यह गैस की चोरी करते हैं और गैस निकाल लेते हैं”। गैस की चोरी करने का इल्ज़ाम लगाने वाले मेरे दोस्त जब बड़े रेस्टोरेंट में जाते हैं तो कई हजार कुछ घंटों में खर्च कर देते हैं। उनको कभी यह कहते हुए नहीं सुना कि यह बड़े सेठ भी लोगों को लुटते हैं।

तभी तो मुझे लगता है कि आज मजदूर कोरोना से ज्यादा, जालिम सिस्टम से शोषित हैं। उनका शोषण तो सभ्यता के उदय के साथ ही शुरू हो गया, जो कई हजार साल पुराना है। कोरोना तो आज आया है और कल चला ही जायेगा। मगर शोषणकारी तंत्र खत्म होने में न जाने कितना वक्त लगेगा?

शायद, यह कोरोना भी इस शोषणकारी तंत्र से अलग नहीं है।

– अभय कुमार
जेएनयू
6 मई, 2021

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