कोरोना: खून चूसने वाले खून ही चूसते हैं…

अभय कुमार

(समाज वीकली)- कोरोना महामारी के दौरान, मरते हुए रोगी को दवा और ऑक्सीजन की माकूल सप्लाई नहीं हो पा रही है। महीनों और सालों से बहुत सारे कर्मचारियों को मजदूरी नहीं मिल पा रही है। लोगों को दाना और खाना नहीं मिल पा रहा है। मगर, दिल्ली के मकान मालिकों को महीना लगते ही किराया चाहिए।

“किराया दे दीजिए”। थोड़ी देर पहले मेरे मकान का ‘केयर-टेकर’ ने मुझे फोन किया। सच कहता हूं मन किया कि फोन पर ही उसे एक तमाचा जड़ दूं। मगर इसका क्या फायदा? फोन तो सिर्फ ‘साउंड वेव’ को इस पर से उस पार पहुंचता है।

फिर थोड़ी देर में ख्याल आया कि केयर-टेकर भी तो नौकरी कर रहा है। अगर वह मालिक के हुक्म को नहीं मानेगा तो उसकी नौकरी चली जायेगी। मेरे मकान का केयर-टेकर वैसे उतना कड़क नहीं है। शायद इस की दो वजहें हैं।

पहला तो यह कि वह अल्पसंख्यक समुदाय से आता है। अकल्लियत होने का क्या खतरे और परेशानी होता है, उसे वह महसूस करता है। दूसरा, वह काफी दिनों तक बीमार रहा। शायद बीमारी और पीड़ा ने भी उसे थोड़ा नरम कर दिया होगा।

मेरा कैयर-टेकर बिहार से है। वह सीमांचल इलाके का रहने वाला है। ‘केयरटेकरी’ के साथ, वह छोटी-मोटी ठेकेदारी भी करता है। मुझे लगता है कि वह मकान में बिजली के बिल में भी कुछ घपला करता है। कई बार बिजली का बिल ज्यादा आने पर, मेरी उससे बहस हुई और मैंने कहा कि “मैं मकान मालिक से बात करना चाहता हूं।“ मगर हर बार इससे वह कतराता रहा है।

मगर फिर भी वह ठीक इंसान है। थोड़ी बहुत हेरा-फेरी करना उसकी मजबूरी भी है। उसके दो छोटे बच्चे हैं। उनकी पढ़ाई पर भी काफी पैसा लगता होगा। शायद कुछ पैसे उसे अपने दवा-दारू पर भी खर्च करना पड़ता है। वह मुझसे अच्छे से बात करता है।

इसकी वजह यह है वह मुझे बड़ा आदमी समझता है। उसकी ग़लतफ़हमी कुछ यूँ पैदा हुई। एक दिन कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। मेरी बिल्डिंग में जेएनयू के कुछ साथी रहते हैं। सब नीचे बैठ कर आग सेक रहे थे। तभी मैं वहां से गुजरा। दोस्तों ने वहां मुझे रोक लिया।

“कुछ देर तो हाथ सेक लीजिए। दिन भर कहाँ भागते ही रहते हैं?”
“जी जरूर।” मैंने अपने दोस्त की बात मानी।

मुझे एक कुर्सी ऑफर की गयी। केयर-टेकर भी वहीं मौजूद था। फिर बात मेरी ‘राइटिंग’ और सहाफत पर आ पहुंची।

“आप को मालूम नहीं कि हमलोग कितने खुशनसीब हैं कि ऐसी अजीम हस्ती के साथ बैठने का सर्फ हासिल हुआ है।” जेएनयू के एक साथी ने मेरी खूब तारीफ की।

यह साथी कुछ साल पहले दुबई से दिल्ली लौटे हैं । उनको अरबी जबान आती है। वहां वह किसी एमएनसी में नौकरी करते थे। दिल नहीं लगा तो वापस आ गएँ। मगर उनको इस बात का मलाल है कि वह जेएनयू में अरबी की पढ़ाई पीएचडी तक कर सके।

“स्कॉलर तो आप हैं। आप दाढ़ी में बिल्कुल मुफक्किर दिखते हैं।” यह साथी मेरी तारीफ पर तारीफ किए जा रहा था। फिर उसने अपना मोबाइल खोला और सब को दिखाते हुए कहा, “पहचाना आपने, यह किस की तस्वीर है?”

जैसे ही उसने उर्दू अखबार में छपे फोटो के साथ मेरे एक मजमून को दिखाया, केयर-टेकर को यकीन हो गया कि वाकई मैं बड़ा आदमी हूं।

“अखबार में किसी ऐरे-गैरे का फोटो थोड़े छपता है?” केयरटेकर ने जोर देकर अपनी बात कही।

तब से लेकर आज तक उसका सुलूक मेरे साथ अच्छा रहा है। कभी भी उसने मुझसे जोर से बात नहीं की। मगर प्रेम से पैसे मांगने में कभी पीछे नहीं हटता। महीने लगते हैं वह बार-बार फोन करने से गुरेज़ नहीं करता। आज भी जब मैंने झल्लाकर कहा कि, “दुनिया मरी जा रही है और आप को किराए की पड़ी है?”

मेरी तेज आवाज का उसने बड़े नर्म आवाज में जवाब किया और कहा, “सर यह तो मेरा काम है।”

उसकी बात सुनकर मुझे यह यकीन हो गया कि जहर चाहे कड़वी हो या मीठा, वह तो जान ही लेता है। मीठी छुरी भी तो गला ही कटती है। कोई गला थोड़े सिलती है!

फिर मैंने उससे सवाल किया, “क्या हम भागे जा रहे हैं? आप को मालूम नहीं दिल्ली और देश में क्या चल रहा है। लोग भूखे मर रहे हैं। लोग दवा और इलाज के बगैर मर रहे हैं। हम सब किसी तरह रूम में छुपे हुए हैं। एक तो अभी पैसा नहीं। ऊपर से अभी किसी से मिलने से सख्त परहेज कर रहा हूं। जब माहौल ठीक हो जाएगा, आप को पैसे मिल जाएगा। क्या इस महामारी में भी आप को किराए मांगने में शर्म नहीं आती? क्या आप की इंसानियत मर गई है?”

फोन पर केयर टेकर ने जो जवाब दिया उसे सुनकर मैं दंग रह गया।

“क्या करे सर? मकान मालिक खुद कोरोना पॉजिटिव हो गया है। मगर मुझे किराया मांगने के लिए बार-बार कहता है”। केयर टेकर ने जवाब दिया।

फोन रखने के बाद मैं यही सोच रहा हूं कि इंसान अपने स्वार्थ के लिए किसी का दर्द समझने के लिए तैयार नहीं। एक कोरोना से बीमार इंसान भी कोरोना महामारी में मर रहे लोगों के साथ हमदर्दी नहीं रखता।

मेरा मकान मालिक को कोई गरीब नहीं है। बगैर कुछ किए उसे लाखों रुपए हर महीने मिल जाते हैं। दिन भर मजदूरी करने वाला एक मजदूर दिल्ली जैसे महंगे शहर में पांच सौ रूपया भी बड़ी मुश्किल से कमा पाता है। होटल और दुकान में काम करने वाला मजदूर की सैलरी भी पांच से सात हजार रूपये ही है, जो पांच सौ प्रति दिन से काफी कम है।

शायद, खून चूसने वाले हमेशा खून ही चूसा करते हैं। संसाधन और प्रॉपर्टी का मालिक कभी भी है गरीब और मजदूर का दोस्त नहीं हो सकता।

अभय कुमार
जेएनयू

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