किसान आंदोलन : आत्मालोचन का समय

Dr. Prem Singh

(समाज वीकली)

– प्रेम सिंह

तीन कृषि कानूनों के विरोध में जारी किसान आंदोलन की दो उपलब्धियां स्पष्ट हैं : पहली, लोकतांत्रिक प्रतिरोध के लिए जगह बनाना। दूसरी, निजीकरण-निगमीकरण के दुष्परिणामों के प्रति जागरूकता का विस्तार करना। मौजूदा सरकार के तानाशाही रवैये, अपने विरोधी नागरिकों/संगठनों को बदनाम करने की संगठित मुहिम और निजीकरण-निगमीकरण की दिशा में अंधी दौड़ के मद्देनजर किसान आंदोलन की इन दो उपलब्धियों का विशेष महत्व है। इन दो उपलब्धियों में भी दूसरी ज्यादा सार्थकता रखती है। भारत का लोकतंत्र अपनी समस्त विद्रूपताओं के बावजूद मरजीवा है। उसमें लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए जगह बढ़ती-सिकुड़ती रहती है। किसान आंदोलन ने पहली बार निजीकरण-निगमीकरण की अंधी चालों (ब्लाइन्ड मूव्स) के खिलाफ शासक-वर्ग और नागरिक समाज को कम से कम आगाह किया है। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ जैसे उदारीकरण की नीतियों के समर्थक अखबार ने 26 जनवरी कि घटना पर लिखे संपादकीय में कहा है : “लोगों की चिंताओं और सरोकारों की ओर से कान बंद करके सुधार नहीं थोपे जा सकते, कानून बनाने की प्रक्रिया में जरूरी विचार-विमर्श का पालन अनिवार्य है। कृषि कानूनों के बारे में लोगों को समझाने और प्रेरित करने का कठिन काम किया जाना अभी बाकी है। किसानों का सेल्फ-गोल, किसी भी मायने में, किसी की जीत नहीं है।“ (27 जनवरी 2021)

किसान इन “काले” कानूनों के खिलाफ 6 महीने से संघर्षरत हैं। पिछले 2 महीने से वे राजधानी दिल्ली की 5 सीमाओं पर महामारी और कड़ी ठंड का प्रकोप झेलते हुए धरना देकर बैठे हुए हैं। इस बीच 171 आंदोलनकारियों की मौत हो चुकी है और 5 आत्महत्या कर चुके हैं। संचालन, हिस्सेदारी, प्रतिबद्धता और अनुशासन के स्तर पर आंदोलन ने एक मिसाल कायम की है। आंदोलन का चरित्र अराजनीतिक रखा गया है। किसानों ने धरना हालांकि दिल्ली की सीमाओं पर दिया हुआ है, लेकिन आंदोलन का विस्तार पूरे देश के स्तर पर है, और उसे ज्यादातर राज्यों के महत्वपूर्ण किसान संगठनों का समर्थन प्राप्त है। यही कारण है कि आंदोलन को बदनाम करने की सरकारी कोशिशों के बावजूद किसानों ने कृषि कानूनों और कृषि क्षेत्र के कारपोरेटीकरण के समर्थकों की भी सहानुभूति अर्जित की है।

यह सही है कि 26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड के दौरान होने वाली अनुशासनहीनता और हिंसा की दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने आंदोलन की छवि को धक्का पहुंचाया है। लाल किला पर निशान साहिब का झण्डा फहराना सबसे ज्यादा आपत्तिजनक माना गया है। 26 जनवरी की घटना, जिसे ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने किसानों का ‘सेल्फ-गोल’ कहा है, पर तीन पक्षों से विचार किया जा सकता है : आंदोलनकारियों के पक्ष से, सरकार (सुरक्षा एजेंसियों सहित) के पक्ष से और विपक्ष के पक्ष से। इस लेख में घटना पर आंदोलनकारियों के पक्ष से विचार किया गया है।

कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन का संयुक्त किसान मोर्चा के रूप में साझा नेतृत्व है। 26 जनवरी की घटना के लिए सीधे मोर्चा का साझा नेतृत्व जिम्मेदार माना जाएगा। लोगों की तरफ से सरकार के साथ बात-चीत करना और प्रेस में बयान देना नेतृत्व का ऊपरी कार्यभार होता है। नेतृत्व का असली काम आंदोलन के मुद्दे, कार्यक्रम और कार्य-प्रणाली को आंदोलनकारियों को भली-भांति समझाना है। यह काम सच्चाई और पारदर्शिता के साथ किया जाए तभी आंदोलन की नैतिक आभा कायम रहती है। भारत अगर गांधी का भी देश है तो उसमें नेतृत्व का यह गुण दुर्लभ नहीं है।

यह सही है कि दिल्ली पुलिस के साथ हुए समझौते के तहत तय रूट से विचलन करने वाले लोग रैली में शामिल अढ़ाई-तीन लाख लोगों और करीब एक लाख ट्रेक्टरों की संख्या के मुकाबले नगण्य थे, लेकिन यह भी सही है कि सभी धरना स्थलों पर सभी लोगों ने तय समय से पहले मार्च की शुरुआत कर दी। ऐसा लगता है कि मोर्चा का नेतृत्व मण्डल साझा नेतृत्व की जिम्मेदारी का निर्वाह न करके अपने-अपने संगठनों के संचालन में व्यस्त रहा। जबकि यह सुनिश्चित करना उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी थी कि रैली में शामिल होने वाले सभी लोग कम से कम प्रस्थान-बिंदु से समय और रूट के हिसाब से आगे बढ़ें।

पुलिस के साथ तय हुए रूट पर कुछ आंदोलनकारियों का शुरू से विरोध था। 25 जनवरी की शाम को रूट को लेकर होने वाले विवाद ने सिंघू बॉर्डर पर काफी तूल पकड़ लिया था। नेतृत्व को इस गंभीर विवाद को हर हालत में सुलझाना चाहिए था। न सुलझा पाने पर स्थिति की नाजुकता के मद्देनजर पुलिस को सीधे और जनता को प्रेस के माध्यम से सूचित करना चाहिए था। रैली में शामिल होने के लिए एक रात पहले या रात को धरना स्थलों पर पहुंचे अधिसंख्य लोगों को रूट की समुचित जानकारी नहीं थी। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से सारी स्थिति की जानकारी होने के बावजूद नेतृत्व ने इस दिशा में मुनासिब कार्रवाई नहीं की।

संघर्ष के दो महीने के अंदर नेतृत्व को यह संदेश भी देना चाहिए था कि आंदोलन भले ही पंजाब के किसानों ने शुरू किया, और जमाया भी, लेकिन वह केवल पंजाब के किसानों का आंदोलन नहीं है; न ही केवल पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश तक सीमित है। इसके साथ संयुक्त किसान मोर्चा की छतरी के बाहर छूटे संगठनों को भी मोर्चा में शामिल करना चाहिए था। पंजाब के लोगों के सौजन्य से धरना स्थलों पर खान-पान, रहन-सहन और मनोरंजन से जुड़ी कई अभिनव (इनोवेटिव) चीजें देखने को मिलीं। लोग चिढ़े भी, और चमत्कृत भी हुए। इनके साथ अध्ययन शिविरों (स्टडी सर्कल) का आयोजन भी किया जा सकता था। घटना के बाद जिन्हें असामाजिक तत्व या आंदोलन की पीठ में छुरा भोंकने वाले बताया गया है, वे शुरू दिन से आंदोलन में सक्रिय थे। दो महीने के दौरान नेतृत्व को आंदोलन के विषय और कार्यप्रणाली के बारे में उन्हें कायल करना चाहिए था।

‘बोले सो निहाल’ का जयकारा और निशान साहिब का ध्वज गुरु महाराजों की उदात्त दुनिया की चीजें हैं। सामान्य मनुष्यों की सामान्य दुनिया के मसले नागरिक-बोध से संविधान के दायरे में उठाने और सुलझाने होते हैं। आंदोलन में शामिल वरिष्ठ और युवा नागरिकों की यह समझ बनाई गई होती, तो लाल किला पर निशान साहिब का झण्डा फहराने की घटना उकसावे के बावजूद शायद नहीं होती। किसान संगठनों से सीधे जुड़े लोगों के मुकाबले सामान्य लोगों की संख्या कई गुना ज्यादा थी। अगर शिक्षण और चर्चा शिविर चलते रहते तो दो महीने से महामारी और ठंड की मार झेलते हुए घर के सुख से दूर खुले मैदान में पड़े रहने की तकलीफ और प्रियजनों की मौत का दुख लोगों को आक्रोश की जगह सहनशीलता सिखा सकता था। नए भारत में नव-साम्राज्यवाद का नयापन यह है कि उसे भारत का शासक-वर्ग ही थोप रहा है। उसका मुकाबला करने के लिए बड़ी सहनशीलता की जरूरत है।

मेरी व्यक्तिगत राय में ट्रैक्टर परेड के, वह भी गणतंत्र दिवस को, आयोजन का फैसला सही नहीं था। फिर भी 26 जनवरी को जो हो सकता था उसकी कल्पना भी की जा सकती है। राजपथ पर दोपहर 12 बजे गणतंत्र दिवस परेड समाप्त होती, और निर्धारित ‘जनपथ’ पर पूरी धज के साथ किसानों की ट्रैक्टर परेड की शुरुआत होती। प्रस्थान-बिंदुओं और रास्ते में पड़ने वाले प्रमुख चौराहों पर सीधे प्रसारण की व्यवस्था हो पाती तो सारा देश और विश्व वह नजारा देखता। भले ही सरकार कानून रद्द नहीं करती, आंदोलन अगले चरण में पहुँच जाता।

यह नहीं हो सका तो नेतृत्व और आंदोलनकारियों को आत्मलोचन की जरूरत है, निराश होने की नहीं। धक्का लगा है, लेकिन 6 महीने से जमा हुआ आंदोलन गिरा नहीं है, गिर भी नहीं सकता। नेतृत्व को अपनी तरफ से 26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड की पूरी सही रपट – क्या, क्यों और कैसे हुआ – देश के सामने लिखित रूप में प्रस्तुत करनी चाहिए। साथ में तय रूट पर चलने वाली परेड के फुटेज/फ़ोटो जनता के लिए जारी करने चाहिए। जहां गलतियां हुई हैं, उन्हें बिना छिपाए स्वीकार करना चाहिए। गलतियों से आगे के लिए सीख लेकर आंदोलन के दूसरे चरण की योजना और तैयारी पर काम शुरू करना चाहिए। वे चाहें तो इसके लिए देश भर में लोगों से सुझाव और सहायता मांग सकते हैं। ‘सरकार के षड्यन्त्र’ का यही माकूल जवाब हो सकता है।

26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड की तैयारी के लिए समर्पित युवा कार्यकर्ताओं ने दिन-रात एक कर दिया था। उन्होंने एक अनुशासित और शानदार ट्रैक्टर परेड का सपना देखा था, जो एक झटके में टूट गया। उनके प्रति नेतृत्व का फर्ज बनता है कि वे और अन्य युवा आंदोलन में आगे भी पूरे समर्पण और समझदारी के साथ सक्रिय रहें। अगले चरण में आंदोलन और नेतृत्व में महिलाओं की भागीदारी ज्यादा से ज्यादा होनी चाहिए। खेती-किसानी के करपोरेटीकरण के विरोधी सभी किसान संगठनों का एक नेतृत्व मण्डल बने। अखिल भारतीय स्तर पर तीन कृषि कानूनों के विरोध की विस्तृत रूपरेखा बनाई जानी चाहिए। यह जरूर समझने की जरूरत है कि मुख्यधारा राजनीति में नेता बनने के अभिलाषी किसान आंदोलन का इस्तेमाल न करें। अगले साल गणतंत्र दिवस फिर आएगा। तब एक शांतिपूर्ण और शानदार परेड का आयोजन किया जा सकता है।

सरकार का और दमन-चक्र शुरू हो गया है। धरना-स्थल जबरन खाली कराए जाने की नीयत से आक्रमण किये गए हैं। बेरिकेड खड़े करके आंदोलनकारियों को अलग-थलग करने की कोशिश की गई है। बहुत से आंदोलनकारी गिरफ्तार किए गए हैं और किसान नेताओं की गिरफ्तारियों के आदेश निकाले गए हैं। कुछ लोग अभी तक लापता हैं। ऐसी बुरी स्थिति में राकेश टिकैत के भावुक रुदन ने आंदोलन में नए प्राण फूंके हैं। हालांकि, आंदोलन का फोकस कृषि कानूनों और प्रतिरोध के लोकतान्त्रिक अधिकार से हट कर ‘इज्जत’ पर होता नजर आ रहा है। यह सरकार के लिए अनुकूल स्थिति है। सरकार ने सोची-समझी रणनीति के तहत दो अंतर्राष्ट्रीय सेलेब्रेटियों के किसान समर्थक ट्वीट को अपने उग्र राष्ट्रवाद के अजेंडे के साथ जोड़ दिया है। ऐसा लगता है सरकार के विरोधी इस जाल को समझे नहीं हैं।

सबसे बुरी स्थिति यही हो सकती कि लंबे संघर्ष के बाद भी किसान आंदोलन अंतत: परास्त हो जाए। लेकिन वह महाकाव्यात्मक पराजय होगी। देश के जमे हुए और शक्ति व संसाधन-सम्पन्न मजदूर संगठनों, छात्र संगठनों, विभिन्न विभागों के कर्मचारी-अधिकारी संगठनों ने निजीकारण-निगमीकरण के सामने बिना आर-पार की लड़ाई लड़े अपना मैदान हवाले कर दिया। भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के बारे में सुनते थे कि उनकी यूनियन इतनी मजबूत है कि कोई सरकार उनके अधिकार-क्षेत्र में दखल नहीं दे सकती। मोदी सरकार ने संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) को धता बता कर लेटरल एंट्री के जरिए प्राइवेट सेक्टर के लोगों को सीधे संयुक्त सचिव के रैंक पर आसीन कर दिया। कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं हुई। इस किसान आंदोलन ने यह विश्वास पैदा किया है कि किसान की नियति आत्महत्या नहीं, याराना वित्त पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष है।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक हैं)

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