(समाज वीकली)
न्यायिक जवाबदेही पर लोकतांत्रिक सवाल ‘अवमानना’ नहीं है !
8 अगस्त, 2020: मानवाधिकार कार्यकर्ता और अधिवक्ता श्री प्रशांत भूषण द्वारा किये गए दो ‘ट्वीट्स’ के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने उनके ख़िलाफ़ अवमानना की कार्यवाही शुरू की है, जिस पर NAPM अपनी चिंता व्यक्त करता है। ये ट्वीट्स दोबारा ग़ौर करने योग्य हैं, यह समझने के लिए कि श्री भूषण के ख़िलाफ़ की जा रही यह कार्यवाही कितनी अनुचित और अजीब है।
· 27 जून को उन्होंने ट्वीट किया कि पिछले 6 वर्षों में लोकतंत्र के विनाश में जिस तरह सर्वोच्च न्यायलय (SC) और चार पूर्व मुख्य न्यायाधीशों (CJI) की भूमिका रही है, उसे भविष्य में इतिहासकारों द्वारा अंकित किया जाएगा।
· 29 जून को उन्होंने मुख्य-न्यायाधीश बोबडे की एक तस्वीर पोस्ट की जिसमें वे एक हार्ले-डेविडसन बाइक पर सवार हैं, जो कथित तौर पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता, सोनबा मुसले के बेटे के नाम पर दर्ज है। भूषण ने इस फोटो के बारे में लिखा कि CJI बिना हेलमेट या मास्क पहने इस बाइक पर सवार हैं, जबकि उन्होंने कोरोना महामारी के नाम पर सुप्रीम कोर्ट बंद रखा और तमाम लोगों को न्याय से वंचित।
ये ट्वीट ‘अदालत की अवमानना‘ नहीं बल्कि वर्तमान में न्यायपालिका की दुर्दशा का कारण बन रहे प्रमुख मुद्दों की ओर इशारा करते हैं।कार्यवाही शुरू होने के मद्देनजर दायर किए गए अपने हलफनामे में श्री भूषण ने कहा कि यह ट्वीट पिछले 10 वर्षों में सुप्रीम कोर्ट के तौर-तरीकों और कामकाज के बारे में बनी उनकी धारणा को दर्शाते हैं, खासतौर से जिस तरह पिछले चार CJI ने कार्यपालिका (एक्सेक्यूटिव) को मनमाने ढंग से काम करने दिया है। ‘मोटरसाइकिल वाला ट्वीट,’ जिसे भूषण ने आंशिक रूप से वापस ले लिया है, ने लोगों की ज़रूरतों पर न्यायिक असंवेदनशीलता, और सरकार और न्यायपालिका के बीच बनती खतरनाक निकटता को रेखांकित किया है। विशिष्ट न्यायाधीशों की सार्वजनिक आलोचना करना अदालत की प्रतिष्ठा या अधिकार पर प्रहार करना नहीं है, जैसे किसी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री की सार्वजनिक आलोचना उनके कार्यक्षेत्र या भारत सरकार की प्रतिष्ठा को कम नहीं करती है। यह लोकतांत्रिक बहस और संवाद का एक अभिन्न हिस्सा है जो तमाम संस्थानों को ‘हम भारत के लोग‘ के प्रति जवाबदेह रखता है।
भारत के संघर्षशील और पीड़ित लोगों के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले आंदोलनों के रूप में, हम समझते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में उच्च न्यायालयों की निराशाजनक भूमिका पर श्री भूषण के सवाल व चिंता जायज़, महत्वपूर्ण व प्रासंगिक हैं। पिछले कुछ सालों में, सरकार द्वारा लोगों के मौलिक अधिकारों के हनन व शोषण पर सवाल उठाने में अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारी के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट की अनिच्छा पर गंभीर प्रश्न उठे हैं। हाल के समय में, बेहद ख़राब ढंग से सोचे व लागू किये गए लॉकडाउन के बीच प्रवासी मज़दूरों को जैसा संकट झेलना पड़ा, उसमें सुप्रीम कोर्ट के समय से हस्तक्षेप न करने की चौतरफा आलोचना हुई। न्यायालय ने हालांकि अंत में हस्तक्षेप किया और कुछ ज़रूरी आदेश पारित किए, लेकिन यह कदम बहुत देर से उठाए गए और लाखों श्रमिकों को इस दौरान बहुत नुकसान झेलना पड़ा। इसके विपरीत, बॉम्बे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों बेहद जल्दी अर्णब गोस्वामी के बचाव में आए, जिन्हे कथित रूप से हमेशा सरकार पक्ष के पत्रकार, घृणा और नकली समाचारों को फैलाने के लिए जाना जाता है | पालघर के ‘लिंचिंग मामले’ के पक्षपाती कवरेज और बांद्रा स्टेशन के बाहर प्रवासी श्रमिकों की घटना के संदभ में अर्नब के खिलाफ दायर प्राथमिकी (FIR) में अर्नब को न्यायालयों द्वारा त्वरित अंतरिम जमानत दी गई |
कोविद महामारी की शुरुआत के बाद से पांच महीने बीतने के बावजूद, अदालतों के सीमित रूप से भी ‘फिज़िकल सुनवाई‘ शुरू नहीं करने के फैसले को लेकर भी चिंता व्यक्त की गयी है। ‘वर्चुअल सुनवाइयों’ के दौरान हमें कई ऐसे उदहारण देखने को मिले जहाँ श्री भूषण जैसे अधिवक्ताओं के माइक ‘ऑन‘ ही नहीं किये गए, जबकि उन्हें महत्वपूर्ण मौखिक वक्तव्य रखने थे। अयोध्या मसले पर 2019 का खेदजनक फैसला, नागरिकता संशोधन क़ानून (CAA) और अनुच्छेद 370 में मनमाने बदलाव पर अदालत का रुख, अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी शिक्षकों के लिए 100% आरक्षण को निरस्त करना, आदि ऐसे फैसले रहे, जिनसे आभास होता है कि कोर्ट वास्तव में लोकतंत्र और संवैधानिक सिद्धांतों की लगातार उपेक्षा कर रहे हैं।
इन सवालों को समाज के सभी वर्गों – मीडिया, शिक्षाविदों, नागरिक समाज संगठनों, कानूनी पेशे से जुड़े लोगों और यहाँ तक कि स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के पीठासीन और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने भी उठाया है। जैसा कि भूषण ने अपने हालिया हलफनामे में बताया है, जस्टिस डी.वाई चंद्रचूड़ ने 15 फरवरी, 2020 को गुजरात हाईकोर्ट में 15वें पी.डी देसाई मेमोरियल लेक्चर के दौरान किसी भी असहमति को ‘देश-द्रोह‘ करार देने की मानसिकता पर अपनी पीड़ा व्यक्त की। प्रशांत भूषण पर इस तरह का हमला उस व्यापक ‘पैटर्न’ का हिस्सा है, जिसके तहत संस्थाओं के प्रति सार्वजनिक असंतोष और आलोचना को दबाया जा रहा है, और मानवाधिकार संरक्षकों, वकीलों, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ राजनीतिक प्रतिशोध लिया जा रहा है।
श्री भूषण कानूनी व्यक्तित्वों की उस दुर्लभ श्रेणी में हैं, जिन्होंने किसी भी पार्टी के सत्ता में होने के बावजूद दशकों से न्यायपालिका की स्वायत्ता और स्वतंत्रता के लिए अथक परिश्रम किया है। वे हमारे समाज के सबसे कमज़ोर वर्गों के अधिकारों के लिए निरंतर लड़ने वाली आवाज़ रहे हैं, और उन तबकों तक निःशुल्क क़ानूनी सेवा पहुँचाते रहे हैं, जिनके लिए न्याय पाना आसान नहीं होता। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में पर्यावरण संरक्षण, मानव अधिकार, नागरिक स्वतंत्रता, उच्च संस्थानों में भ्रष्टाचार आदि को लेकर तमाम केस लड़े हैं और न्यायिक जवाबदेही और सुधारों, ख़ासकर उच्च न्यायालयों में, के लिए मुखर रूप से काम करते रहे हैं।
यह कहना गलत नहीं होगा कि वह न्यायिक स्वतंत्रता, न्याय और लोकतंत्र के सच्चे सिपाही हैं। शायद यही कारण है कि उनके ट्वीट्स सत्तावादी और जन-विरोधी सरकार और उसके सहयोगियों को खतरे की तरह मालूम हो रहे हैं और उन्होंने राजनीतिक प्रतिशोध की भावना को आमंत्रित किया है। यहाँ तक कि उनके ख़िलाफ़ एक पुराना मामला, जिसमें उनसे 2009 में एक साक्षात्कार के बाबत पूछताछ की गई थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट के 16 पूर्व मुख्य न्यायाधीशों में से कम से कम आधे भ्रष्ट थे, को भी पुनर्जीवित कर दिया गया है। श्री भूषण पर यह कार्यवाही उस परेशान करने वाली कड़ी का हिस्सा है जिसके तहत नागरिकों को उनकी सोशल मीडिया गतिविधियों के लिए निशाना बनाया जा रहा है। ज़्यादा समय नहीं हुआ है जब पत्रकार प्रशांत कनौजिया और कुछ अन्य लोगों को ऐसे फोटो व वीडियो शेयर करने के लिए हिरासत में लिया गया जो कथित रूप से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रति ‘अपमानजनक‘ थे। सोशल मीडिया पर नागरिक अपनी टिप्पणियों के लिए निशाने पर आ रहे हैं, जबकि भाजपा के IT सेल द्वारा तैयार किये गए ट्रोल लगातार सोशल मीडिया पर नफ़रत फ़ैलाने में तत्पर हैं।
न्यायालय की अवमानना का अधिनियम, गैर-क़ानूनी गतिविधियाँ (रोक थाम) विधेयक (UAPA) और राजद्रोह क़ानून की ही तरह उन क़ानूनों की सूची में आता है जिनपर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन करने और मनमाने ढंग से इस्तमाल किये जाने को लेकर प्रायः चर्चा होती रही है। 2006 में एक संशोधन ने इस कानून के तहत आरोपित व्यक्तियों की स्थिति को मज़बूत किया। 2010 में कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति डी वी शिलेंद्र कुमार ने आरोप लगाया कि “श्रेष्ठ न्यायालयों (अर्थात् सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों) में न्यायाधीश नियमित रूप से अदालत की अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति का दुरुपयोग करते हैं, जिसमें कानून की महिमा को बनाए रखने की मंशा से अधिक स्वयं के कुकर्मों को ढंकने की मंशा शामिल होती है।” 2018 में विधि आयोग द्वारा सरकार को सौंपी गयी रिपोर्ट में कहा गया कि अदालत की अवमानना के कानून में संशोधन करने की आवश्यकता नहीं है। श्री भूषण पर अवमानना कार्यवाही शुरू किये जाने के जवाब में उन्होंने संपादक एन.राम और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी के साथ एक याचिका दायर की है, जिसमें इस कानून की संवैधानिकता को ही चुनौती दी गई है।
· NAPM एडवोकेट प्रशांत भूषण के साथ पूरी तरह से एकजुटता व्यक्त करता है और अवमानना कानून का असहमति को कुचलने के लिए इस्तेमाल किये जाने की कड़ी निंदा करता है।
· गहन न्यायिक और सार्वजनिक दबाव के बीच भी न झुकने और न्याय व्यवस्था की जवाबदेही पर सार्वजनिक रूप से प्रश्न उठाने के लिए हम प्रशांत जी की सराहना करते हैं। खासकर ऐसे समय में जब उच्च न्यायालयों को कार्य पालिका (एक्सेक्यूटिव) की तमाम ज़्यादतियों को नज़र अंदाज़ करते देखा जा सकता है, महत्वपूर्ण मुद्दों पर संवैधानिक उल्लंघन और निष्क्रियता देखी जा रही है, जिसका सबसे बड़ा उदहारण था सुप्रीम कोर्ट का उत्तर-पूर्वीय दिल्ली में फरवरी/मार्च में हुई सुनियोजित ‘सांप्रदायिक हिंसा’ पर मूक दर्शक बने रहना।
· हम जन आंदोलनों, ट्रेड यूनियनों, नागरिक संगठनों और नागरिकों का हमारे समय की चुनौतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए, और न्यायिक संस्थाओं सहित सभी संस्थानों की संवैधानिक व जनतांत्रिक मूल्यों, निष्पक्षता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों पर जवाबदेही तय करने का आह्वान करते हैं।