तीन कृषि कानूनों को तुरंत रद्द करो! कंपनी राज का विरोध करो!
(समाज वीकली)- ऐतिहासिक और विश्व स्तर पर अपनी पहचान बना चुके किसान आंदोलन, जो 26 नवंबर के ‘दिल्ली चलो!’ के आह्वान के साथ एक जोशीले दौर में पहुंच गया था, ने आज सौ दिन पूरे कर लिए। यह आंदोलन उन तीन कुख्यात कृषि कानूनों को चुनौती देता रहा है जो खेती पर अभूतपूर्व कार्पोरेट कब्जे की शुरुआत करेंगे, मंडी व्यवस्था को नष्ट करेंगे और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के महत्व को कम कर देंगे, वहीं कृषि भूमि के बड़ी कंपनियों द्वारा हथिया लिए जाने की संभावना भी बढ़ जाएगी. भूस्वामी किसान, सीमान्त किसान और खेतिहर मजदूर, खासकर इन सभी श्रेणियों की महिलाएं, इन कानूनों के चलते व्यापक नुकसान उठाएंगे. इसके अलावा इन कानूनों के जरिए अडानी अम्बानी जैसे बड़े पूंजीपतियों का ग्रामीण शासन और खेती पर दबदबा बढ़ जाएगा, जिसके चलते पहले से ही चले आ रहे कंपनी राज को और बल मिलेगा।
पिछले सात महीनों से पूरे देश ने हर इलाके के किसानों को सड़कों पर उतरकर, इन कानूनों के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाते हुए देखा है, जो उनकी पहले से ही संकटग्रस्त स्थिति को और खतरनाक बना देंगे और अंततः हमारी सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस) को भी ख़त्म कर देंगे. सिविल सोसायटी के विभिन्न हिस्सों और सचेत नागरिकों ने भी कई जगह आंदोलन को अपना समर्थन दिया है. पंजाब, जो न सिर्फ खेती पर निर्भर है बल्कि जहां किसान आंदोलन और यूनियनों की लम्बी परंपरा रही है, के किसानो और खेतिहर मजदूरों ने पहले दिन से ही इस आंदोलन का नेतृत्व किया है.
संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) के नेतृत्व में, जो देश भर के पांच सौ से भी ज्यादा किसान संगठनो से मिल कर बना है, और अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (AIKSCC) के सहयोग से किसान नवम्बर के अंत में दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचे, जिसमें पंजाब के हजारों ट्रैक्टर शामिल थे. उन्होंने सिंघु. टिकरी और गाज़ीपुर बॉर्डर पर ऐतिहासिक धरने, कड़कती ठण्ड के महीनो में जारी रखे. किसानो ने शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक ढंग से चक्काजाम और रेल रोको आंदोलनों का भी इस्तेमाल अपनी बात सरकार और ताकतवर मध्यमवर्गीय तबके के सामने रखने के लिए किया है, हालांकि अधिकांशतः उन्हें नज़रअंदाज ही किया गया है.
सरकार ने अपना जनविरोधी और तानाशाही रवैया जारी रखते हुए किसानों की बात सुनने से इंकार कर दिया है, जबकि किसानों का कहना है कि इन कानूनों को लागू करने की प्रक्रिया में इनसे मुख्य रूप से प्रभावित होने वाला तबका होने के बावजूद उनकी सलाह नहीं ली गई. सरकार, उसके दक्षिणपंथी सहयोगियों और गोदी मीडिया ने किसान आंदोलन को बदनाम करने की बहुत कोशिशें की हैं, फर्जी कहानियां गढ़ी है, आंदोलन को कुचलने की कोशिशें की हैं, दमन किया है, गिरफ्तारियां की हैं. केंद्र सरकार ने पंजाब की अघोषित आर्थिक और आवाजाही की नाकाबंदी भी कर दी थी. लेकिन दमन के इन सारे चक्रों को किसान और श्रमिक वर्ग के जबरदस्त प्रतिरोध ने नाकाम किया है.
बढ़ती हिस्सेदारी और नेतृत्व के जरिए, महिला और उम्रदराज किसानों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश की उन स्त्रीविरोधी और विपरीत टिप्पणियों को भी करारा जवाब दिया है जिसमें उन्होंने पूछा था कि ऐसे लोगों को प्रदर्शन में “रखा” क्यों गया है. दिल्ली की सीमाओं पर और पंजाब में आंदोलन को जिन्दा रखने में महिला किसानों की केंद्रीय भूमिका सच में प्रेरणादायक है.
पिछले कुछ महीनों में यह आंदोलन देश भर में आग की तरह फ़ैल गया है और तीन कृषि कानूनों और विद्युत् विधेयक को पूरी तरह रद्द करने, सभी फसलों के समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी देने, डीज़ल की कीमतें कम करने और स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों (खासकर C2+50) को लागू करने की मांग जोर पकड़ चुकी है. लेकिन अनेक बैठकों के बावजूद मांगे मांगने से सरकार के इंकार ने आंदोलन को और मजबूत ही किया है और पिछले दो महीनों में इसने पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा और उत्तराखंड में व्यापक समर्थन प्राप्त किया है. बहुत सी महापंचायतों और रैलियों के जरिए लाखों लोगों, जिनमें महिलाओं की भी महत्वपूर्ण भागीदारी थी, ने अपनी आवाज उठाई है. आज किसानों ने दिल्ली जाने वाली बड़ी सड़कों पर चक्काजाम किया और मांगों के मांगे जाने तक अपना आंदोलन जारी रखने का संकल्प लिया.
अपना समर्थन जाहिर करते हुए हम इस आंदोलन की अभी तक की महत्वपूर्ण उपलब्धियों को दिल से सलाम करते हैं. पंजाब के अंदर इसने गैर-किसान समूहों को भी आंदोलित किया है और केंद्रीकृत कार्पोरेट समर्थक हिंदुत्ववादी राज के खिलाफ एक क्षेत्रीय राजनैतिक उभार तैयार करने में सफलता पाई है. इस आंदोलन ने किसानों को राजनैतिक बहस के बीच में ऐसे लोगों के रूप में ला खड़ा किया है जो कार्पोरेट राज के खिलाफ खड़े हैं. यह ऐसे समय में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है जब हम हिंदुत्ववादी – पूंजीवादी सत्ता के सामान्य हो जाने के खतरे से जूझ रहे हैं.
इसमें कोई आश्चर्य नहीं की इस राजनैतिक प्रक्रिया ने महत्वपूर्ण रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को दूर करने की उम्मीद जगाई है, जिसे भारतीय जनता पार्टी ने 2013 में सांप्रदायिक दंगों के जरिए भड़काया था और उससे बड़े पैमाने पर चुनावी लाभ पाया था. सरकार भी किसान यूनियनों के साथ कई दौर की बातचीत करने पर मजबूर हुई, हालांकि उसने कभी भी मूल मुद्दों को समझने और सुलझाने की कोई ईमानदार कोशिश नहीं की. आंदोलन के दबाव में ही सरकार को विद्युत् (संशोधन) विधेयक और एनसीआर में वायु प्रदूषण से सम्बंधित अध्यादेश – जिसमें किसानो पर भारी जुर्माने का प्रावधान था – को रद्द करने पर मजबूर होना पड़ा. सर्वोच्च न्यायालय को भी आंदोलन का संज्ञान लेना पड़ा और उसने किसानों के शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के अधिकार में हस्तक्षेप करना ठीक नहीं समझा।
पिछले कुछ दिनों में आंदोलन ने बहुत से गैर-भाजपा राजनैतिक दलों और केंद्रीय ट्रेड यूनियनों – जिन्हें नए श्रम कानूनों के खिलाफ आंदोलन में समर्थन दिया गया – का समर्थन हासिल करने में सफलता पाई है और बंगाल में चल रहे “भाजपा को वोट नहीं” आंदोलन में अपनी भागीदारी दी है. दूसरे शब्दों में आंदोलन एक देश और समाजव्यापी संघर्ष खड़ा करने की दिशा में बढ़ा है और विभिन्न संघर्षों, ट्रेड यूनियनों और पार्टियों के साथ गठजोड़ करके इसने भाजपा के संघीय ढाँचे के खिलाफ खड़े हिंदुत्ववादी-कार्पोरेट राज के खिलाफ एक सशक्त राजनैतिक विपक्ष बनाने की कोशिश की है.
एन.ए.पी.एम देश के सभी किसानो को, खासकर जो कड़ाके की ठंड और पत्थरदिल सरकार को झेलते हुए सौ दिन से दिल्ली में डंटे हुए हैं, सलाम पेश करता है. हम उन सभी 248 किसानों को श्रद्धांजलि देते हैं, जिन्हें इस निष्ठुर सरकार के रवैये के चलते शहीद होना पड़ा. हम यह मानते हैं कि अब पूरे देश का उन किसानो के साथ कंधे से कंधे मिलाकर खड़े रहने का समय आ गया है, जो वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों के लिए जीने-मरने की लड़ाई लड़ रहे हैं.
समर्थन में,
जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (NAPM)
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